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________________ अर्चनार्चन Jain Education International श्रावेगों संवेगों का नियामक तथा निर्देशक है । जिस स्थान को योगाचार्यों ने ब्रह्मरंध्र कहा है, वह प्राधुनिक शरीरशास्त्र के लघु मस्तिष्क से संदर्भित किया जा सकता है। भारतीय योगियों के अनुसार यही वह चक्र है, जिसके पूर्ण जाग्रत होने पर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है । श्रतः इसे सर्वसिद्धि प्रथवा सर्वज्ञता केन्द्र भी किन्हीं किन्हीं प्राचार्यों ने कहा है इस प्रकार चक्रस्थानों अथवा चेतनाकेन्द्रों की अवस्थिति आदि के बारे में सभी एकमत हैं । पंचम खण्ड / १२० अब हमें यह देखना है कि इन चेतना केन्द्रों का भ्रात्मसाधना में सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्र तप की साधना में कितना महत्व है? यह कितने उपयोगी हो सकते हैं? साधक किस प्रकार इनका उपयोग करता है ? चेतना केन्द्रों की साधना, राधा-वेध से भी 'दुष्कर साधना के क्षेत्र में चरणन्यास करने से पहले चेतना केन्द्रों की प्रकृति को समझ लेना श्रावश्यक है । इन केन्द्रों को जगाना राधावेध से भी अधिक दुष्कर, श्रम साध्य और स्थिरतादृढ़ता की अपेक्षा रखता है । धनुर्वेद में राधावेध प्रत्यन्त उच्चकोटि की साधना मानी गयी है । यह धनुर्धारी के मन की एकाग्रता तथा अचूक निशाना साधने की क्षमता एवं त्वरित निर्णय तथा उसके क्रियान्वयन की परीक्षा है। राधावेध में तो परछाई देखकर ऊपर चक्र में घूमती हुई पार्थिव पुतलिका का वेध किया जाता है; किन्तु चेतना केन्द्रों को जगाने की प्रक्रिया में तो चौदारिक शरीर में अवस्थित चक्र की तैजस शरीर में पड़ती हुई परछाई (सही शब्दों में ज्ञान (धात्मा) की धारा का सपन चक्राकार प्रवाह ) को वेधा जाता है । राधावेध में तो तीर भी भौतिक होता है धौर उसे भौतिक धनुष पर चढाकर ही लक्ष्यवेध किया जाता है; जबकि चेतनाकेन्द्र जागृति में बाण का काम करती है ऊर्जा प्रवा शक्ति और धनुष है स्वयं साधक का भावावेग । भावना रूपी प्रत्यंचा पर प्राणधारा रूपी ऊर्जा का बाण चढ़ाकर चेतनाकेन्द्रों को प्रसुप्ति से जागृत दशा में लाया जाता है। यह साधन कुछ दुष्कर अवश्य हैं, और दुष्कर हैं सिर्फ उन्हीं साधकों के लिए जिनके अन्तस् 新 बाह्य जगत् की नामना-कामना उपस्थित रहती है, किन्तु जो साधक सच्चे हृदय से श्रात्म-साधना करना चाहता है, उसके लिए यह दुष्कर नहीं है । साधना के लिए अन्तरंग की निस्पृहता और मन की एकाग्रता तथा काय (घासन ) की स्थिरता एवं वचन योग की अचपलता तो श्रावश्यक है ही । चेतना केन्द्रों के स्वरूप, अवस्थिति, लक्षण श्रादि के बारे में जानने के बाद अब हम यह जानने का प्रयास करें कि साधक की साधना में यह चेतना केन्द्र कितने सहायक बनते हैं, इनके जागृत होने पर साधना में किस प्रकार चमक आती है, उसकी चेतनाधारा ( प्राणशक्ति की ऊर्जा) का किस प्रकार ऊर्ध्वारोहण होता है और वह कैसे धनुत्तर ज्ञान दर्शन के प्रकाश से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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