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________________ जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्व 0 डॉ. निजाम उद्दीन विषमताओं और असंगतियों से घिरे इस समाज का सारा वातावरण और परिवेश असंतुलित है। शक्तिस्रोतों में असंतुलन है, प्रकृतिजगत में असंतुलन है, मनुष्य के विचारों-भावों में असंतुलन है। मनुष्य का सकल जीवन विषमताग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषित है, हमारी जीवन-पद्धति प्रदूषित है। वायु, जल सभी में प्रदूषण है। भ्रष्टाचार, उत्कोच, लूट-मार, मिलावट, तस्करी, हिसा भरे मानव-समाज में अजीब तरह की अफरा-तफरी है। भौतिकता द्वंद्वमयी बन चुकी है । मनुष्य की जीवन-सरिता में जीवन-मूल्यों के स्रोत सूख गये हैं। वह विदिशा में भ्रमित होकर भटक रहा है। नैतिकता स्खलित हो रही है। जो देश अहिंसा को परम धर्म समझता आ रहा है, उसी देश में—महावीर, गौतम, नानक के देश में हिंसा पर हिंसा हो रही है। मनुष्य-मनुष्य को जान से मार रहा है। लगता है हम गीता, कुरान भूल गये, जिनवाणी, गुरुवाणी बिसार बैठे हैं । महावीर ने 'आचारांगसूत्र' में कहा है-"जब तुम किसी को मारने, सताने या अन्य प्रकार से कष्ट देना चाहते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो। यदि वही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाता तो कैसा लगता? यदि मानते हो कि तुम्हें अप्रिय लगता है तो समझ लो दूसरे को भी अप्रिय लगेगा। यदि नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करे तो तुम भी किसी के साथ वैसा व्यवहार मत करो।" उन्होंने संदेश दिया था कि राग-द्वेष के तटों के बीच रहो; न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । किसी के प्रति न राग रखो, न द्वेष रखो, समभाव में रहो। समता भाव के उपवन में ही अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य और अनेकान्त के सुगंधित गुलाब विकसित होते हैं। समता का अर्थ है मन की स्थिरता, राग-द्वेष का उपशमन, समभाव, सुख-दुःख में अचल रहना। समता आत्मा का स्वरूप है। सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मतुल्य भाव रखना चाहिए-"प्रायतुले पया"' साधु प्राणिमात्र के प्रति समता का चिन्तन करते हैं। समता से श्रमण, जान से मुनि होता है। समता में ही धर्म है-"समया धम्ममुदाहरे गुणी" | महावीर ने कहा है कि साधक को सदैव समता का माचरण करना चाहिए। उनके मांगलिक धर्मोपदेश का आधार समता है, अर्थात् पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, निर्जीव-सजीव, सकल मानवजगत् की रक्षा की जाये, सब पर दया-दृष्टि रखी जाये, सब से प्रेम-मैत्री भरा व्यवहार किया जाये। सूक्ष्मातिसूक्ष्म, १. सूत्रकृतांग १।११।३ २. उत्तराध्ययन २०३० ३. सूत्रकृतांग, २।२।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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