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________________ जैन दर्शन में आत्म-विज्ञान / ३०३ (x) ग्यारह भेव — एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा दस भेद और व्यारहवाँ भेद सिद्ध । (xii) बारह भेद-पाँच स्थावरों के सूक्ष्म और बादर की अपेक्षा दस भेद, एक बस और त्रस बारहवाँ सिद्ध । (xiii) तेरह मेवषट्काव (पाँच स्थावर व श्रस ) के पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा बारह भेद तथा तेरहवाँ भेद सिद्ध (xiv) चौदह भेद - (i) नारक (v) मनुष्यनी तथा चार प्रकार के देव ज्योतिष्क, वैमानिक) यों तेरह भेद । चौदहवाँ भेद सिद्ध । (ii) तियंच (iii) तियंचनी (iv) मनुष्य व चार प्रकार की देवियाँ (भवनपति, वाणव्यंतर, (xv) पन्द्रह भेद (i) सूक्ष्म एकेन्द्रिय (ii) बादर एकेन्द्रिय, तीन विकेन्द्रिय तथा संजी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय यों सात भेद के पर्याप्त, अपर्याप्त ये चौदह भेद होते हैं । पन्द्रहवाँ भेद सिद्ध । इस प्रकार जीवों के विभिन्न भेद-प्रभेद उनके वर्गीकरण के भेद से होते हैं । संसारी जीवों के विस्तार से ५६३ भेद भी होते हैं । स्पष्टीकरण नव तत्व या पच्चीस बोल के थोकड़े श्रादि में देखा जा सकता है। इन भेदों को ध्यान में लेने से जीवों को विभिन्न पर्यायों व अवस्थाओं का परिज्ञान होता है जो आत्मा का स्वरूप समझने में सहायक हैं । आत्मा का अस्तित्त्व शाश्वत है चार्वाक आदि कुछ नास्तिक आत्मा के पृथक् अस्तित्व को नहीं मानते हैं । उनका कथन है "एए पंच महन्भूया, तेब्मो एगोत्ति आहिया । अह तेसि विणासेणं विनासो होइ देहिणो । "" अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतों से एक धारमा उत्पन्न होती है । इन भूतों के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है, किन्तु यह मान्यता भ्रामक एवं असत्य है, क्योंकि पृथ्वी प्रादि भूतों के गुण अन्य हैं तथा आत्मा का गुण चैतन्य अलग है | यदि यह कथन मान्य किया जाए कि सब भूतों के मिलने से चैतन्य गुण प्रकट होता है, तो जो गुण कभी किसी भूत में नहीं, वह उनके मिलने पर कैसे उद्भूत हो सकता है ? कदाचित् पंच भूतों से जीव की उत्पत्ति मान ली जाए तो फिर उसकी पंच भूतों के रहते मृत्यु नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह सर्वविदित है कि पंच भूतों से युक्त देह पड़ी रहती है, और जीव की मृत्यु हो जाती है। यदि पंच भूतों में किसी भूत की कमी या अधिकता से मृत्यु हो तो उसकी पूर्ति भी सब प्रकार से की जा सकती है, विशेषकर श्राज के विकसित विज्ञानयुग . में ऐसा करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती । किन्तु मृत्यु होने के बाद पुनः मृत शरीर में जीवन का सृजन लाख प्रयत्न करने पर भी संभव नहीं होता । १. सूत्रकृतांग, प्र. श्रु. Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समय में ww.jamelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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