________________
भाष-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
किये हए दोष अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। इसके विपरीत उन्हें दुहराते रहने से वह दोष-भाव में प्राबद्ध हो जाता है । उसकी निर्दोष अथवा निर्मल बन जाने की संभावना अनन्त में विलीन हो जाती है। दोषों की उत्पत्ति का कारण
दोषों की उत्पत्ति और पापकर्मों का उपार्जन मुख्य रूप से अपने विवेक को अमान्य करने से होता है। विवेक और ज्ञान का अनादर करना कर्म की अशुद्धि को निमंत्रण देना है। कर्मों की शुद्धि और अशुद्धि का निर्णय मान्यताओं अथवा प्रथाओं के आधार पर करना उचित नहीं है अपितु यह निर्णय अपने विवेक और ज्ञान के द्वारा करना चाहिये। शुभकर्म अथवा धर्म के विषय में आज के समय में परस्पर विरोधी इतनी मान्यताएँ हैं कि मनुष्य बाह्यज्ञान के द्वारा कदापि सच्चे धर्म और उसके अनुरूप कर्म नहीं कर सकता । इसीलिये किसी ने कहा है:
धर्म को तो आज दुनिया ने खिलौना कर लिया।
दूध के बदले में पानी का बिलौना कर लिया। वस्तुतः आज कोई व्यक्ति हिंसा में अर्थात् देवी-देवताओं के सम्मुख जीवित प्राणियों की बलि चढाने में धर्म मानता है तो कोई उन्हें बचाने में यानी अहिंसा में, कोई गंगा-यमुना में गोता लगाने में तो कोई गेरुए वस्त्रधारी साधु को गाँजा-तम्बाक पिलाने में, तो कोई मूर्ति को चढ़ावा चढ़ाने में और कोई भाव-पूजा में धर्म मानते हैं। इसी प्रकार कोई सूर्य को जल चढ़ाने में अथवा कोई हनुमानजी का व्रत रखने में, कोई पीपल की परिक्रमा में, कोई तुलसीपत्र चबाने में धर्म मानते हैं । इस प्रकार नाना पंथ और सम्प्रदाय विभिन्न कर्मों को धर्म का हेतु मानकर क्रियाएँ करते रहते हैं किन्तु भावशुद्धि का महत्त्व बिरले ही समझ पाते हैं, जो धर्म का सच्चा स्वरूप है और उसका मूल कारण भी है।
इसीलिये मेरा आपसे कहना है कि मान्यताओं और प्रथाओं के आधार पर धर्म का स्वरूप समझना तथा दोषों का निर्णय करना उचित नहीं है। इसके लिये स्वयं के विवेकज्ञान को जगाना आवश्यक है। निज ज्ञान में जहाँ दोषों को जान लेने की क्षमता है वहीं दोषों को मिटाने के उपाय भी विद्यमान हैं । अपने आत्मिक ज्ञान के प्रकाश में ही इन्द्रियों में जितेन्द्रियता, मन में शुद्ध संकल्प तथा निर्विकल्पता तथा बुद्धि में समता और संयम स्वतः आ जाएगा और चित्त निर्मलता से परिपूर्ण हो सकेगा। एक छोटे से सुन्दर मुक्तक में यही बताया है:
चाहते हो मुक्ति तो इतना करो, सत्य, संयम को सदा द्विगुणित करो। बाहरी जड़ दीप से कुछ भी न हो, आत्मा के बीप को, प्रज्वलित करो ॥
समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
17
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org