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________________ एकात्मकता के साये में पली- पुसी हमारी संस्कृति [] डॉ. भागचन्द भास्कर, डी. लिट् । संस्कृति व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र की एक अजीब नब्ज हुआ करती है जिसकी धड़कन को देख-समझकर उसकी त्रैकालिक स्थिति का अन्दाज लग जाता है । हमारी भारतीय संस्कृति में उतार-चढ़ाव और उत्थान-पतन बहुत प्राये पर सांस्कृतिक एकता कभी विच्छिन्न नहीं हो सकी । उसमें एकात्मकता के स्वर सदैव मुखरित होते रहे । इतिहास के उदयकाल से लेकर आज तक इस तथ्यात्मक वैशिष्ट्य को हम सहेजे हुए हैं राष्ट्र एक सुन्दर मनमोहक शरीर है। उसके अनेक अंगोपांग हैं जिनकी प्रकृति और विषय भिन्न-भिन्न हैं । अपनी-अपनी सीमा से उनका बंधाव है, लगाव है और इसी लगाव से उनमें परस्पर संघर्ष भी होते । क्रोध, ईर्ष्या आदि विकारभावों से उनमें विकारभाव भी उत्पन्न होते हैं । इन सबके बावजूद वे आत्मा से पृथक् नहीं हो पाते । श्रात्मा के नाम पर उनमें एकात्मकता सदैव बनी रहती है । यह एक ऐसी अन्विति है जिसमें बाह्यतत्व भी चिपक जाते हैं, रम जाते हैं और एक ही तत्व में समाहित हो जाते हैं । हमारे राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की स्नेहिल श्रृंखला से जुड़ा हुआ है । राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है । जन-जन में शान्ति, सह-अस्तित्व और श्रहिंसात्मकता उसका चरम बिन्दु है । विविधता के पली- पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का हृदयहारी पाठ पढ़ाती है । भाषा, धर्म, जाति और प्रादेशिकता एकता को विखण्डित करने के प्रबल कारण होते हैं । इनकी संकीर्णता से बंधा व्यक्ति न्याय और मानवता की दीवालों को लांघकर हिंसक, क्रूर और श्राततायी हो जाता है । उसकी दृष्टि स्वार्थपरता के जहर से दूषित हो जाती है, हेयोपादेय के विवेक से मुक्त हो जाती है और सीमितता की चकाचौंध में अँधया जाती है । भाषा अभिव्यक्ति का एक स्वतन्त्र और सक्षम साधन है, साध्य नहीं है । जहाँ वह साध्य हो जाता है वहाँ सक्तियों और संकीर्णताओंों के घेरे में मनोमालिन्य, झगड़े-फसाद और कलह की चिनगारियाँ विषाद उगलने लगती हैं, चेतना समाप्त हो जाती है, होश गायब हो जाता है, मात्र बच जाता है विरोध, वैमनस्य और प्रादेशिकता की सड़ी-गली भावनाएँ । एक वर्गविशेष धर्म को अफीम मानता आया है । उसका दर्शन जो भी हो, पर यह तथ्य इतिहास के पन्नों से छिपा नहीं है कि जब भी धार्मिक भावनाएँ उभरी, अल्पसंख्यकों पर मुसीबत आयी और धर्म के नाम पर उन्हें बुरी तरह कुचला गया । धर्म का यदि सुपाक न हुआ हो तो वह विष से भी बदतर सिद्ध होता है । धर्म के श्रन्तस्तल तक पहुँचना सरल नहीं होता । तथाकथित धार्मिक और राजनीतिक नेता जब धर्म के मुखौटे को प्रोढ़कर जनसमुदाय की भावनात्रों को Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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