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________________ चतुर्थ खण्ड | १९० कोण के कारण तथागत बुद्ध के समक्ष नई-नई समस्याएँ खड़ी हो जाती थीं। जिन्हें सुलझाने के लिए उन्हें नये-नये नियम बनाने पड़े। जैन-भिक्षुणीवर्ग और बौद्ध भिक्षुणीवर्ग में अन्तर जैनयुग में भिक्षुणीवर्ग जरा संयमित एवं नियमित हो गया था। जैन-भिक्षुणी की साधना . भी कठोर होती थी। जैनभिक्षों और भिक्षणियों के रहने के धर्मस्थान भी अलग-अलग होते थे। जैनागमों के अनुसार भिक्षुणीसंघ का अस्तित्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में भी था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि जैनभिक्षुणीवर्ग को साधना परिपक्व, अनुभूत एवं समाज-मान्य थी। जबकि बौद्धधर्म में भिक्षसंघ की स्थापना के पांच वर्ष बाद भिक्षुणीसंघ बनाया गया था। इस विलम्ब का मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि बुद्ध स्त्रियों को सांसारिक दुःखों का मूल कारण तथा दुःखविनाश में बाधक भी मानते थे। अतः सैद्धान्तिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष में धर्माचरण करने की समान क्षमता मानते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से वे स्त्रियों को भिक्षुणी रूप में संघ में प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे । यही कारण है कि बुद्ध ने पुरुषवर्ग को भिक्षु बनाने में उत्साह बताया, वैसे स्त्रीवर्ग को भिक्षुणी बनाने में उतना उत्साह नहीं बताया। चूंकि बुद्ध संघ को विशुद्ध ब्रह्मचर्यस्थल बनाना चाहते थे, अत: वे ब्रह्मचर्य की विकारभूत स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने के लिए उत्साहित नहीं थे। उस युग में बुद्ध के संघ का जो रूप या, वह भिक्षुणी की सुरक्षा करने में असमर्थ हो गया था। इसीलिए बुद्ध भिक्षुणी रूप में नारी को संघ में प्रवेश देना नहीं चाहते थे ।५ जैन-पागमों के अनुसार उस युग में नारियों को न केवल गार्हस्थ्य अवस्था में पुरुषों के समान धर्माचरण करने का अधिकार था, अपितु भिक्षणी बनने में भी उन पर संघ की ओर से किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। इतना ही नहीं, जैन मान्यतानुसार स्त्री केवलज्ञानी, तीर्थंकर एवं सिद्ध (मुक्त) भी बन सकती थी। राजकुमारी मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर पद प्राप्त किया। काली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा आदि रानियों ने साध्वी . बनकर रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना करके केवलज्ञान एवं मोक्ष भी प्राप्त किया था। बुद्ध के मतानुसार स्त्री सम्यक सम्बुद्ध नहीं हो सकती थी। अत: जैनभिक्षुणियाँ बौद्धभिक्षुणियों की अपेक्षा सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दष्टियों से धार्मिक क्षेत्र में आगे थीं। जैन साधु और साध्वी दोनों को धार्मिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त थे। जैनयुग तक भिक्षुणीसंघ कोई नवीन संस्था नहीं रह गई थी, इसलिए बौद्धयुग की तरह जैनयुग में भिक्षणियों के शील की रक्षा करना कोई जटिल समस्या नहीं रह गई थी; ३. चुल्लवग्ग पृ० ३८२-३८६ तथा आगे। ४. इत्थी मलं ब्रह्मचरियस्स, एत्थायं सज्जते पजा।-संयुत्त० ११३६ ५. साधु भंते ! लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पबज्ज ति । अलं गोतमि, मा ते रुच्चि मातुगामस्स....."पव्वज्जा" ति । -चुल्ल० पृ० ३७३ ६. नायाधम्मकहा ११८७०,८३। ७. अंतगडदसामो० ८वां वर्ग । ८. अद्रानमेतं भिक्खवे, अनवकासो यं इत्थी परहं अस्स सम्मासंबुद्धो।-अंगुत्तर० १११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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