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________________ जैन और बौद्ध परम्परा में नारी का स्थान / १९१ क्योंकि बौद्धसंघ की तरह जैनसंघ की व्यवस्था गणतंत्र के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं थी, अपितु भिक्ष-भिक्षुणी संघ के सुरक्षण एवं संचालन का भार संघ के वरिष्ठ भिक्षुप्राचार्य पर रहता था। वह केवल पुराने बने हुए नियमों के आधार पर ही नहीं, परिस्थितिवश नये नियम बनाकर भी संघ का संचालन-संरक्षण करता था। वह संघ की, विशेषतः भिक्षणीवर्ग की सुरक्षा करने में सतत जाग्रत रहता था। इसी कारण भ० महावीर और उसके पश्चात प्राचार्य प्रादि नारी को प्रव्रज्या देने में न तो हिचकते थे और न ही किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाते थे। मूल जैनागमों में सामाजिक व्यक्तियों द्वारा जनसाध्वियों पर अनाचार या अनादर किये जाने के उल्लेख नहीं मिलते । निष्कर्ष यह है कि बौद्ध भिक्षुणियों का समाज की ओर से शील की असुरक्षा का जो खतरा बना रहता था, वह जैनयुग तक कम हो गया था। समाज में इनका विशिष्ट स्थान बन गया था। राज्य एवं समाज का सबसे बड़ा व्यक्ति भी भिक्षणी या परिव्राजिका को देखकर आसन से उठता था, उनका स्वागत करता, तथा वन्दना करके उचित सम्मान प्रदर्शित करता था।१० जैनभिक्षुणी बनने के कारण जैनयुग में भिक्षुणी-जीवन के प्रति सामान्य नारी का आकर्षण कम हो गया था। उस समय वे ही स्त्रियाँ जैनभिक्षुणी बनती थीं, जिन्हें ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति की एवं मोक्ष प्राप्त करके सर्वदुःखों का अन्त करने की प्रबल लालसा होती थी, या पारिवारिक जीवन में जिनका किसी दु:ख के कारण रहना कठिन हो जाता। अर्थात या तो वह पति के लिए अप्रिय बन जाती, या वह सन्तान को जन्म देने में असमर्थ होती या विधवा हो जाने से उपेक्षित होती। ऐसी परिस्थिति में, जो नारी संसार से विरक्त होती, वह अपने संरक्षकवर्ग की आसानी से स्वीकृति प्राप्त कर भिक्षणी बन जाती थी। दुःखित, पीडित या अपमानित नारियाँ प्रारम्भ में किसी जैन साध्वी से अपने दुःख निवारण का उपाय पूछती थीं, जब भिक्षुणी दुःख का सावध उपाय न बताकर निरवद्य भिक्षुणी-जीवन ग्रहण करने का उपदेश देती थी तो उन्हें बाध्य होकर भिक्षुणी बनना ही पड़ता था। आशय यह है कि इस युग में नारी भिक्षुणीजीवन के आकर्षण के कारण नहीं, अपितु प्रायः सांसारिक जीवन से खिन्न होने के कारण दीक्षा लेती थी।" - --- ९. निशीथः एक अध्ययन, पृ० ६६ १०. तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ, पासइत्ता सीहासणाप्रो उन्भुट्ठ इ... सक्कारेइ आसणेणं उवनिमंतेइ ।-नायाधम्म० ११८७९ 0 निशीथ एक अध्ययन, पृ० ६६ ११. (क) इच्छामि णं, देवाणुप्पिया ! .."पव्वइत्तए । अहासुह""तए णं सा पउमावई अज्जा एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ।-अन्तकृत्० ५।११८५-८९ (ख) भगवतीसूत्र० १२१२ (ग) अहं तेयलिपुत्रस्स""""अणिट्टा "। तं सेयं खलु मम""पव्व इत्तए । -नाया० १२१४११०५ शग्गो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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