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नत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४५
पांच ज्ञान तीर्थकरा पाया, कर गया फगल विचारी।
जन सुखदेवज धोवण बैठा, करडी मत उर धारी ॥६॥ सन्त ने इस में प्रात्मशोधन की प्रक्रिया का एक जामे के प्रक्षालन के प्रतीक द्वारा निरूपण किया है। यह आध्यात्मिक प्रक्षालन की प्रक्रिया है, जो सदज्ञान द्वारा, सम्यग्ज्ञान द्वारा, जिससे सम्यक विधिक्रम प्रस्फुटित होता है, निष्पन्न होती है। निष्पन्नत्व के शीर्षस्थ रूप में अवस्थित तीर्थंकरों का, जिन्होंने जगत को धर्म का सन्देश दिया, इस पद के अन्त में दो पंक्तियों में उल्लेख हुअा है, जो उनके परम शुद्धात्मस्वभाव का ख्यापन करता है । तीर्थंकरों ने पांचों ज्ञानों को स्वायत्त कर लिया, यह उनका अतुल आत्म-पराक्रम था, जिससे प्रात्मप्रक्षालन रूप करणीय में उन्हें सबल संबल प्राप्त हुआ।
संत सुखराम, जो रामस्नेही परम्परा के उच्च कोटि के महात्मा थे, वास्तव में साम्प्रदायिक संकीर्णता से सर्वथा अतीत थे। उनके लिए तीर्थंकर, अवतार पुरुष, जो भी उच्च आत्माएं इस भूमण्डल पर आती रही हैं, वरेण्य हैं, आदरणीय हैं । तीर्थकरत्व के आदर्शों के प्रति संत का बड़ा रुझान रहा है । वे एक स्थान पर लिखते हैं
अटक रह्यो रे साधो, अटक रह्यो, मुझे कोई मेर लगावे रे।
जिण स्थान तीर्थकर पहुंता, वो ई आसण मोई भावे रे ॥ बड़े प्रेरक शब्द हैं ये । संत ने इनमें मानो अपना हृदय खोलकर रख दिया है । वे कहते हैं-मैं अटक रहा हूँ, मंजिल की ओर बढ़ते मेरे चरण कुछ ठिठक रहे हैं, मेरी प्रगति कुछ ध्याहत-सी हो रही है, मुझे कोई यथास्थान पहुंचाए-मेरे वहां पहुंचने में सहयोगी बने। मुझे वह स्थान पाने की अभीप्सा है, जो तीर्थंकरों ने प्राप्त किया अर्थात मैं शुद्ध-बुद्ध, मुक्त होना चाहता हूँ।
सन्त सुखराम न केवल तात्त्विक विषयों में ही नहीं वरन् परंपरा-प्रसूत ऐतिहासिक प्रसंगों में भी सहज भाव से कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो अनादि-अनन्त जैन परंपरा से अनुस्यूत प्रतीत होता है। वे पाद्यतीर्थंकर ऋषभदेव, चरम तीर्थंकर महावीर की चर्चा करते हैं, चौबीसीचतुर्विंशतिक तीर्थंकर-परम्परा का वर्णन करते हैं, सिद्धि, मुक्ति आदि का विवेचन करते हैं। जहां भी तीर्थंकरों का उल्लेख करते हैं, उनके प्रति उनके हृदय में श्रद्धा का अगाध सागर लहराता है। उनके कतिपय पद उद्धत किये जा रहे हैं, जो इन तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं
नव कोड जन पहुंतिया, एक चौबीसी लार । आगे अनंता पहुंतिया, अंत पहुंतण हार ॥ अंत ही पहुंतण हार, भक्त को पराक्रम भारी । जो सिवरे निज पांव, मोख के वे अधिकारी ॥ सुखराम परम पद नाम जो, भणज्यो बारंबार । नव क्रोडा जन पहुंतिया, एक चौबीसी लार ॥ आद भजो जिन रिखबदेव, अंत मजो महावीर । आठ पोर सिवरण किया, धर चित्त ध्यान सधीर ।। धर चित्त ध्यान सधीर, इकान्तर आसन किया। छाड़ दिया सब भरम, जगत सुचारज लिया ।
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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