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________________ अर्चनार्चन जीवन-दर्शन भारत की मूलभूत संस्कृति पर ही नहीं अपितु दिव्यत्व की ओर प्रामुख समग्र मानवीय-चेतना की अनुभूतियों पर भी प्राधत है। मानवता की भावना का विकास आवश्यक--मनुष्य जीवन की सार्थकता उसमें अंतहित मानवता को चरम परिपाक देने में है। केवल नर-देह धारण करने से वह श्रेष्ठ नहीं हो जाता, इसी देह में वह पशु, देव, दानव आदि भी बन सकता है । मनुष्य की असलियत उसके विचारों से जानी जा सकती है। जैन-शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य प्राचार के क्षेत्र में चाहे एक, दो या तीन जन्म तक पराजित हो जाए, परन्तु विचारों के क्षेत्र में पराजित न हो, यही उसे ऊपर उठाने का सूत्र है। उत्तम विचार ही सम्यक-दर्शन है। इससे नरक भी मुक्ति का द्वार खोलने वाला बनेगा। अतः एक सच्चे मनुष्य बनने और मनुष्य की तरह जीने के लिये विचारों को निम्न स्तर के, क्षुद्र एवं संकीर्ण मत बनने दो। मानवता की कसौटी है-कर्त्तव्यपालन । जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को नहीं पहचानते, वे मानव होते हुए भी पशु से भी बदतर जीवन व्यतीत करते हैं। गुरु, शिष्य, शासक, नागरिक न्यायाधीश, चिकित्सक, माता-पिता, संतति, पति, पत्नी, नियोजक, नियोक्ता सबके अपनेअपने कर्तव्य होते हैं। सच्ची मनुष्यता कर्त्तव्य-पालन में निहित होती है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करता है वह न तो इस लोक में सम्मान का पात्र बन सकता है और न ही परलोक का हित साधन कर सकता है। मानव में दिव्यत्व : मानव-शरीर एक खजाना है। इसमें निम्नलिखित रत्न भरे पड़े हैं __ मस्तकरत्न-अपने मस्तिष्क में औरों के अहित की अथवा किसी भी प्रकार के अहंकार की भावना को पनपने न देना । मानसरत्न-प्रात्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को जगाने के लिये मानस को शुद्ध, सरल एवं परिष्कृत बनाना एवं उसे बारह मानस-मलों से मुक्त करना । आननरत्न-गर्व या अहंकार आदि की भावना से सर्वथा परे रहकर या तो मौन रहना या औरों के गुणों की सराहना करना। हस्तरत्न-अपने समाज एवं देश के भले के लिये धन का सहर्ष त्याग करना । चरणरत्न-पात्मगुणों को कायम रखते हुए प्रतिपल परोपकार के लिये तत्पर रहना तथा संकटग्रस्त प्राणियों की पुकार सुनते ही अविलम्ब दौड़ पड़ना । प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन-कोष के इन दुर्लभ एवं दिव्य रत्नों की पहिचान करे और इनमें से प्रत्येक को समान मूल्यवान् साबित करते हुए प्रात्मकल्याण के मार्ग पर सफलतापूर्वक अग्रसर हो । समाहिकामे समणे तवस्सी * जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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