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________________ . 31 M ना च न . तृतीय खण्ड ले 4 +5. 57 METEN 16 २१. प्रात्मा अपने निज स्वभाव से चिदानन्दमय है। वह अनन्त और प्रखण्ड चेतना का पुंज है तथा अव्याबाध प्रानन्द उसका स्वरूप है। अर्चनाजी के प्रवचन ऐसे अनेक वाक्यों के भंडार हैं जिन्हें न केवल विविध संदर्भो में उद्धृत किया जा सकता है अपितु जीवन-यात्रा में अपना विश्वास-पाथेय भी बनाया जा सकता है। वाक्यों और पंक्तियों की आश्चर्यजनक प्रभावोत्पादकता की चर्चा करते समय यह भूल जाना निश्चित ही अनर्थ होगा कि उनका प्रत्येक प्रवचन लोकयात्रा एवं अन्तर्यात्रा की मार्मिक अनुभूतियों का गंभीर विश्लेषण तथा एक बहुआयामी समग्र चिन्तन की सुगठित एवं सुविचारित ऐसी परिणति है जो कि उनके व्यक्तित्व की गहरी छाप लिये सहजतापूर्वक अभिव्यक्त हो गई है। उनका कथ्य उस सार्वभौम चिन्तन का परिणाम है जो श्रेष्ठतम साहित्यिक संदर्भो एवं दार्शनिक तत्त्व-विश्लेषण के माध्यम से उन्हें अनुभूत हुआ है। किन्तु उनके प्रवचनों में कहीं भी जटिलता एवं दुरूहता नहीं है। वे अर्चनाजी के मुखारविन्द से इस सहजता से निःसृत हुए हैं कि उन्होंने हर वर्ग एवं हर आयु के श्रोतृगण को मंत्रमुग्ध रहने को बाध्य किया है । विविध भाषाओं के उद्धरणों, विभिन्न धर्मों के मनीषियों की सार्थक उक्तियों, सामयिक दृष्टान्तों एवं लघु गाथाओं के सहयोजन के परिणामस्वरूप प्रवचनों की रोचकता एवं प्रभावोत्पादकता में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि हुई है। यह सुधी-विश्व पर एक प्रकार का अहसान ही हुआ है कि उनके प्रवचनों का प्रकाशन अत्यन्त आकर्षक एवं सुमुद्रित रूप में उदारमना एवं समर्पित जन द्वारा संभव किया गया है। विश्वास है यह क्रम निरंतरता पाता रहेगा। इन्हें लेखबद्ध करने एवं विद्वत्तापूर्वक सम्पादित कर प्रकाशित करने के सारे प्रयास अभिनन्दनीय एवं स्तुत्य हैं। वैदिक वाङमय, पौराणिक साहित्य, जैन आगमों एवं दर्शन-ग्रन्थों, बौद्ध-सर्जनाओं तथा मध्यकालीन एवं आधुनिक संतों एवं अध्यात्मविदों की कृतियों पर महासती की गंभीर पकड़ है जो उनके इन प्रवचनों के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाती है। किन्तु अध्ययन एवं मनन की सारी छाप छोड़ने पर भी वे अपने प्रवचनों में उस मौलिकता एवं आनुभविक गहराई को हर समय अपने साथ रखती हैं जो उनमें प्रतिभा, अध्यवसाय, साधना एवं संयम संकल्प के परिणामस्वरूप उनका अपना 'स्व' बनकर मुखरित हुए हैं। समीक्षानों में कृतियों के पक्ष-विपक्ष में पर्याप्त कहा जाता है। किन्तु इन प्रकाशनों के माध्यम से क्रमबद्ध हुए प्रवचनों की स्तुति के अतिरिक्त कोई अन्य पक्ष नहीं है। अपनी इन तीन उल्लेखनीय कृतियों में इस गरिमामयी साध्वी ने जीवन के विविध स्थूल एवं सूक्ष्म अायामों का जो अभ्युदयकारी विवेचन एवं विश्लेषण किया है, उनका पुनरावलोकन करना उनके समूचे कथ्य को संक्षेप में प्रात्मसात करना होगा। उनके द्वारा प्रतिपादित 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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