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स्वतः श्रद्धा जगी मांगीलाल धर्मावत, उदयपुर
मेरे जीवन में मैंने कभी साधु-सन्तों की संगत नहीं की, धर्म-स्थानक में जाने की मुझे बहुत हिचकिचाहट होती थी। इसका कारण यह बना कि जब मैं छोटा था, तब माताजी के साथ स्थानक गया। मेरे हाथ से वहाँ पर स्याही की दवात उल्टी हो गयी । सन्त ने मुझे बहुत बुरी तरह से डाँटा, तभी से मुझे चिढ़ पड़ गयी । अत: मैंने उसी दिन से स्थानक में जाना छोड दिया। लेकिन सौभाग्य से पू. महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" सं. २०२८ में हमारे उदयपुर पधारे और मेरी छोटी बहिन (सुन्दर) को वैराग्य हुआ जो वर्तमान में सुप्रभाजी हैं, लगभग ४ वर्ष वैराग्यावस्था में रही। मेरे पिता श्री भैरुलालजी सा. का आग्रह था कि दीक्षा उदयपुर में ही हो । लेकिन श्री उमेदकुंवरजी म. सा. के पैर में कक्चर हो जाने के कारण हमारी भावना साकार नहीं हो सकी। दीक्षा का सारा कार्यक्रम हमने उदयपुर किया और एक दिन पूर्व बहिन सुन्दर को महामन्दिर जोधपुर ले गये। उसी दिन मुझे पू. महासतीजी म. सा. के दर्शन हुए और उनकी आत्मीयतापूर्वक बातचीत से बहुत प्रभावित हुआ। अधिक प्रभावित होने का दसरा कारण बहिन म. सा. सुप्रभाजी के भयंकर असाध्य बीमारी में पू. महासतीजी के सहयोग एवं आत्मीय भाव, अग्लानपने से की जाने वाली सेवा एवं अध्ययन की ओर उत्साह बढ़ाना आदि अनेक बातें देखकर मेरे मन की श्रद्धा स्वतः ही जग गयी। तब से नियमित रूप में दर्शनों का लाभ लेता रहता हूँ।
प्रेतबाधा से मुक्ति । श्रीमती दाखाबाई, धर्मपत्नी स्व. बाबूलाल रांका जावरा-चौपाटी (म० प्र०)
[१] जब तक वेदनीय कर्म का अशुभ उदय होता है, जीवन में शुभ संयोग भी नहीं मिल सकता है।
मेरे जीवन की दर्द कहानी भी कुछ इसी प्रकार की है। मेरे विवाह को चालीस वर्ष से भी अधिक समय हो गया । जिस दिन ससुराल आई, उसी दिन से
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