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________________ जैन अनुमान की उपलब्धियां / २७ न भुंक्ते" इस वाक्य में उक्त 'पीनत्व' अर्थ 'भोजन' के बिना न होता हुया 'रात्रि भोजन' की कल्पना कराता है, क्योंकि दिवाभोजन का निषेध वाक्य में स्वयं घोषित है । इस प्रकार के प्रथ का बोध अनुमान से न होकर अर्थापत्ति से होता है । किन्तु जैन विचारक उसे अनुमान से भिन्न स्वीकार नहीं कराते । उनका कहना है कि अनुमान अन्यथानुपपन्न ( अविनाभावी) हेतु से उत्पन्न होता है और प्रर्थापत्ति अन्यथानुपद्यमान अर्थ से । अन्यथानुपपन्न हेतु और अन्यथानुपपद्यमान अर्थ दोनों एक हैं— उनमें कोई अन्तर नहीं है । प्रर्थात् दोनों ही व्याप्तिविशिष्ट होने से अभिन्न हैं । डॉ. देवराज भी यही बात प्रकट करते हुए कहते हैं कि “एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तु का प्रक्षेप तभी हो सकता है जब दोनों में व्याप्यव्यापकभाव या व्याप्तिसम्बन्ध हो । 3 देवदत्त मोटा है और दिन में खाता नहीं है। यहां अर्थापत्ति द्वारा रात्रिभोजन की कल्पना की जाती है, पर वास्तव में मोटापन भोजन का अविनाभावी होने तथा दिन में भोजन का निषेध होने से वह देवदत्त के रात्रि भोजन का अनुमापक है । वह अनुमान इस प्रकार है - 'देवदत्तः रात्रौ भुंक्ते, दिवाऽभोजित्वे सति पीनत्वान्यथानुपपत्तेः' यहां अन्यथानुपपत्ति से अन्तर्व्याप्ति विवक्षित है, बहिर्व्याप्ति या सकलव्याप्ति नहीं, क्योंकि ये दोनों व्याप्तियां श्रव्यभिचरित नहीं हैं । श्रतः श्रर्थापत्ति और अनुमान दोनों व्याप्तिपूर्वक होने से एक ही हैं - पृथक् पृथक् प्रमाण नहीं । हेतु का एक लक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूप हेतु के स्वरूप का प्रतिपादन अक्षपाद से प्रारम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धान से प्रतीत होता है । उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैधर्म्य दोनों दृष्टान्तों पर आधारित है । अतएव नैयायिक चिन्तकों ने उसे द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण श्रौर पंचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की हैं। वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य श्रादि विचारकों ने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है । कुछ तार्किकों ने षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, जैसा कि हमने अन्यत्र विचार किया है। पर जैन लेखकों ने अविनाभाव को ही हेतु का प्रधान और एक लक्षण स्वीकार किया है, तथा त्र-रूप्य पांचरूप्य आदि को श्रव्याप्त और प्रतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमान के स्वरूप में प्रदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट है। इस प्रविनाभाव को ही श्रन्यथानुपपन्नत्व अथवा अन्यथानुपपत्ति या अन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकों की ही उपलब्धि है जिसके उद्भावक श्राचार्य समन्तभद्र यह हमने विस्तार के साथ अन्यत्र विवेचन किया है । अनुमान का अंग : एकमात्र व्याप्ति न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभी ने पक्षधर्मता और व्याप्ति को अनुमान का अंग माना है । परन्तु जैन तार्किकों ने केवल व्याप्ति को उसका अंग बतलाया है । उनका मत कि अनुमान में पक्षधर्मता अनावश्यक है । 'उपरि वृष्टिरभूत् प्रधोपूरान्यथानुपपत्तेः ' आदि अनुमानों में हेतु पक्षधर्म नहीं है, फिर भी व्याप्ति के बल से वह गमक है । "स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत्" इत्यादि प्रसद् अनुमानों में हेतु पक्षधर्म हैं किन्तु अविनाभाव न होने से वे अनुमापक नहीं हैं । श्रतः जैन चिन्तक अनुमान का अंग एकमात्र व्याप्ति ( अविनाभाव ) को ही स्वीकार करते हैं, पक्षधर्मता को नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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