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________________ चतुर्थ खण्ड/२६ जैन तार्किक अकलंकदेव ने जो अनुमान का स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनताओं से मुक्त है । उनका लक्षण है लिंगात्साध्याविनाभावामिनिबोधकलक्षणात् । लिंगिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥ इसमें अनुमान के साक्षात्कारण-लिंगज्ञान का भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'लिंगिधीः' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट है। प्रकलंक ने स्वरूप-निर्देश में केवल 'धीः' या 'प्रतिपत्ति' नहीं कहा, किन्तु 'लिगिधी:' कहा है, जिसका अर्थ है साध्य का ज्ञान, और साध्य का ज्ञान होना ही अनुमान है। न्यायप्रवेशकार शंकरस्वामी ने साध्य का स्थानापन्न 'अर्थ' का अवश्य निर्देश किया है । पर उन्होंने कारण का निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलंक के इस लक्षण की एक विशेषता और भी है। वह यह कि उन्होंने 'तत्फलं हानादिबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान का फल भी निर्दिष्ट किया है। सम्भवतः इन्हीं सब बातों से उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकों ने प्रकलंकदेव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान परिभाषा को ही अपनाया। इस अनुमानलक्षण से स्पष्ट है कि वही साधन अथवा लिंग लिंगी (साध्यअनुपेय) का गमक हो सकता है जिसके अविनाभाव का निश्चय है। यदि उसमें अविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पांच रूप विद्यमान हों। जैसे 'वज्र लोहलेख्य है, क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पांच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अविनाभाव के प्रभाव से सद्धेतु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे अपने साध्यों के अनुमापक नहीं माने जाते । इसी प्रकार 'एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है,' 'समुद्र में वृद्धि होनी चाहिए अथवा कुमुदों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्र का उदय है' आदि हेतुओं में पक्ष-धर्मत्व न होने से न त्रिरूपता है और न पंचरूपता। फिर भी अविनाभाव के होने से कृत्तिका का उदय शकटोदय का और चन्द्र का उदय समुद्रवद्धि एवं कुमुद विकास का गमक है। अनुमान का परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भाव ___ अनुमान-प्रमाणवादी सभी भारतीय ताकिकों ने अनुमान को स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन ताकिकों ने उसे स्वतन्त्र प्रमाण नही माना। प्रमाण के उन्होंने मूलत: दो भेद माने हैं—(१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष । अनुमान परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भूत है, क्योंकि वह प्रविशद ज्ञान है और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थ की प्रतिपत्ति होती है । परोक्ष-प्रमाण का क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थ के परिच्छेदक अविशद ज्ञानों का इसी में समावेश है तथा वैशद्य और अवैशद्य के आधार पर स्वीकृत प्रत्यक्ष और परोक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रमाण मान्य नहीं हैं। अर्थापत्ति अनुमान से पृथक नहीं प्रभाकर और भाट्ट मीमांसक अनुमान से पृथक् अर्थापत्ति नाम का स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि जहां अमुक अर्थ अमुक अर्थ के बिना न होता हुआ उसका परिकल्पक होता है वहां अापत्ति प्रमाण माना जाता है। जैसे-'पीनोऽयं देवदत्तो दिवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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