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द्वितीय खण्ड | २१०
लटू की तरह जल रही थीं। हम दोनों उल्टे पैरों द्वार की ओर भाग चलीं। घर पहुँचने तक मुझे तेज बुखार हो गया था। थोड़ी देर बाद बेहोशी की हालत हुई। पिताजी घर पर आए तब अपनी भाभी को (बड़ी माताजी) को बहुत डाँटा । कहा,
आपने इसे वहाँ क्यों भेजा । यदि इसकी जगह कोई दूसरा होता तो वहीं पर खत्म हो जाता। इसके बाद मैं अपने पिताजी को बुलाने वहाँ कभी नहीं गई । जब प्राण लौट आए
मेरे जन्म के बाद पिताजी अज्ञात दिशा की ओर चले गये । जब मैं ढ़ाई तीन साल की थी, तो किसी दष्टिदोष के कारण बीमार हो गई। उपचार के बाद भी हालत गिरती ही गई । वह दिन भी आ गया जब मुझे मृत घोषित कर दिया गया। घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई । शोक का वातावरण छा गया। उसी समय न जाने कैसे पिताजी घर के पीछे की ओर से छलांग लगाकर ऊपर आ गये और मृतक शरीर को अपने कन्धे पर उठाकर ऊपर से ही कूद गए। उस समय गाँव के बाहर जोगियों की जमात आई हुई थी। जमात का महन्त बहुत ही पहुंचा हुआ साधक था। मुझे उसके पास ले जाया गया। कुछ क्षणों की चर्चा के बाद उसने अपनी धूनी से राख की चिमटी कागज की पुड़िया में कच्चे धागे से मेरे गले में बाँध दी। उसी समय मेरी आँख खुल गई और मुझे उसी पीछे के रास्ते से पुनः लाकर सुला दिया गया। पिताजी किस ओर गए पता नहीं लग सका । वह ताबीज मेरे गले में १२, १३ बरस तक रहा ! यदि एक मिनट भी खोल दिया जाता तो फिर से वही हालत हो जाती। इस घटना को आज भी लोग बढ़ा-चढ़ा कर याद करते हैं । यह रहस्य छ: महीने पहले ही एक साधक ने उजागर किया था, जिससे कभी पहले साक्षात्कार ही नहीं हुआ था। वह साधक हैं, मारवाड़ में सखवास नामक गाँव के ठाकुर मानसिंहजी के कुंवर हरीसिंहजी, जिनकी धर्मध्यान में बहुत रुचि है। नाग
एक बार गर्मी के समय बहुत सारे बाल बच्चे एवं घर वाले छत पर सोए हुए थे। उस समय बहुत बड़ा भयंकर काला नाग मेरे पेट पर रेंगता हुआ बड़ी शान्ति से बिना सताये न जाने कहाँ चला गया। बहुत ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला । मेरे सोने का बिस्तरा ऐसा हो गया था जैसे किसी ने पानी में भिगोया हो । यह रहस्य अभी भी बना हुआ है।
एक बार कैबाण्या गाँव प्राते हुए मार्ग में भयानक पानी का प्रवाह आ गया। लोग जिस गाड़ी में बैठे हुए थे, वह गाड़ी बैलों सहित बहने लगी। मेरी आँखें बन्द हो गईं । कुछ भी ध्यान नहीं रहा । पिताजी गाड़ी से नीचे कूद पड़े और बैलोंसहित गाड़ी को खींचकर किनारेकर आए। तब मुझे होश आया । अाँखें खुली तो देखा कि पिताजी के पैर में बहुत बड़ा साँप लिपटा हुआ है । मेरा कलेजा धक से रह गया। देखते-देखते पिताजी ने उसे हाथ से पकड़ कर दूर फेंक दिया। हम नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए कैबाण्या पहुँच गये।
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