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________________ पंचम खण्ड / १०२ अर्चनार्चन जो यौगिक-ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं उनकी संख्या चार है-(१) योगबिन्दु, (२) योगदृष्टिसमुच्चय, (३) योगशतक एवं (४) योगविशिका। इन चारों ग्रन्थों में प्रथम दो संस्कृतभाषा में, शेष दो प्राकृतभाषा में लिखे गये हैं। यद्यपि 'षोडशक' नामक ग्रन्थ में कुछ प्रकरण योगविषयक हैं, परन्तु उनका वर्णन उक्त चार ग्रन्थों में समाविष्ट हो जाता है। _ 'योगबिन्दु' का परिमाण सबसे अधिक है। इस समुच्चय' की श्लोकसंख्या २२८ है। इन दोनों ग्रन्थों की रचना अति प्राचीन एवं प्रसिद्ध संस्कृतछन्द 'अनुष्टुप्' में की गई है। ___ 'योगशतक' की रचना १०१ प्राकृत गाथाओं में तथा 'योगविशिका' की रचना २० प्राकृत गाथाओं में की गई है। इस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र के इन चारों योग-ग्रन्थों का परिमाण ८७६ श्लोक प्रमाण है। ५. अन्य ग्रन्थ आचार्य हरिभद्र बड़े क्रान्तिकारी विचारों के साधू-पुरुष थे। उन्होंने अपने समय के चैत्यवासी जैनसाधूनों में व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध संघर्ष ही नहीं किया अपितु उन्हें संबोधित करने हेतु एक 'सम्बोध-प्रकरण' नाम का ग्रन्थ भी लिखा। जैनविद्या के प्रसिद्ध अन्वेषक पं० नाथुराम 'प्रेमी' ने प्राचार्य हरिभद्र के जिन अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं-'तत्त्वार्थाधिगम' पर टीका' तथा 'ललितविस्तरा'२ एवं अपभ्रशभाषा के दो ग्रन्थ 'जसहरचरिऊ' एवं 'नेमिनाथचरिऊ' । योग-विज्ञान अात्मविकास के लिए 'योग' एक महत्त्वपूर्ण साधन है। भारतीय संस्कृति के समस्त चिंतकों एवं ऋषि-मुनियों ने योगसाधना के महत्त्व को स्वीकार किया है। हम यहां योग के विभिन्न अर्थ, उनमें परस्पर सामंजस्य, भारतीय यौगिक परम्पराएँ, जैनयोग परम्परा एवं उसमें प्राचार्य हरिभद्र सूरि के योगदान की चर्चा करेंगे। योग का अर्थ 'योग' शब्द 'युज्' धातु से 'घ' प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। संस्कृत व्याकरण में 'युज' धातु के दो प्रर्थ हैं-संयोग (जोड़ना) ५ एवं समाधि । भारतीय योगदर्शन में 'योग' शब्द दोनों अर्थों में प्रयुक्त हमा है। महर्षि पतंजलि ने योग का अर्थ किया है समाधि प्रर्थात चित्तवृत्ति का निरोध । प्रायः सभी वैदिक योग-चिन्तकों ने 'योग' का अर्थ समाधि के रूप में किया है। बौद्ध विचारकों ने भी 'योग' का अर्थ समाधि ग्रहण किया है। १. १, २, ३, ४-पं. नाथूराम 'प्रेमी', जैन साहित्य और इतिहास, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर प्रा. लि. बन्बई, १९५६, पृष्ठ संख्या क्रमशः ५१२, ५७, २३७, ४०८ २. रुधादि गणी 'युज्' धातु, युजिर योगे, सिद्धान्त कौमुदी (रुधादिगण) ३. दिवादिगणी 'युज्' धातु, युज् समाधौ समाधिश्चित्तवृत्तिनिरोधः, सिद्धान्तकौमुदी (दिवादिगण) ४. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः-पातंजल योगसूत्र ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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