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द्वितीय खण्ड | १०२
के रक्षक पंच-महाव्रतधारी इस दिव्य-विभूति में मनुस्मृति के समस्त लक्षण, बौद्ध धर्म की समस्त पारमिताएँ और ईसा के समस्त आदेश दृश्यमान हैं। लोक कल्याण की भूमिका में जो जीवन और चरित्र रहा करते हैं व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण के भीतर जो जीवनदर्शन पीठिका के रूप में स्थित रहता है-वही व्यक्तित्व, जीवनचरित्र और दर्शन इनका है। श्री मद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस्तत् तदेवेतरो जनः ।
सो यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ अर्थात् देव आत्माओं का अनुकरण लोकहित का साधन है। ऐसे महान् साधु साध्वी को, व्यक्तित्व को कोटि-कोटि मेरी वन्दनाएँ हैं ।
इनका जन्म भाद्रपद सप्तमी वि० सं० १९७९ को दादिया ग्राम (किशनगढ़) में हुआ । साढ़े ग्यारह वर्ष की आयु में इनका विवाह कर दिया गया किन्तु दाम्पत्य-जीवन अधिक समय तक न रह सका । दो वर्ष पश्चात् ही उसका अन्त हो गय।। ऐसी संकट की घड़ी में भी इन्होंने साहस और धैर्य नहीं छोड़ा। जिसके भाग्य में आध्यात्मिक सुख लिखे हों वह सांसारिक सुखों को तुच्छ समझता है । आध्यात्मिक सुखों से आत्मा को परम शान्ति प्राप्त होती है, उसे भौतिक सुख तो क्या संसार की उत्तम वस्तु भी बाँध नहीं सकती और हुआ भी यही । साधु साध्वी भूले भटके राहियों का मार्ग प्रदर्शन करते हैं। ऐसी ही महासती श्री सरदारकुंवरजी म० सा० इन्हें मांगालिक सुनाने आईं । इनकी अतवेदना देखकर समझकर उनका हृदय भी द्रवित हो गया। धीरे-धीरे इनका हृदय साधना-पथ की ओर अग्रसर होता गया और अन्त में पन्द्रह वर्ष की वय में साधना का कठोर मार्ग अपनाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
दीक्षित होने के पश्चात् मन को एकाग्र कर प्राकृत, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी आदि भाषाओं का सतत अध्ययन किया और निकल पड़ी आत्मविश्वास के साथ समाज के कल्याणार्थ साधना के कठोर पथ पर ।
__ पचास (५०) वर्ष की संयम साधना में इनके तीन प्रवचनसंकलन प्रकाशित हुये हैं, जो इस प्रकार हैं--(१) आम्र मंजरी, (२) अर्चना और आलोक और (३) अर्चना के फूल । इन तीनों प्रवचन-संकलनों का मैंने सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया है। इनके प्रवचन में पांडित्य प्रदर्शन का आभास नहीं होता है वरन् व्यक्ति की मर्यादाओं का समाज और लोकदर्शन के साथ समन्वय देखा जा सकता है और भारतीय-संस्कृति के विभिन्न धर्मों और दर्शनों की बाह्य विविधता के भीतर जो साम्य और एकरूपता है, जो मानवीय मर्यादाएँ हैं उन्हें ही निष्पक्ष और निःसंकोच भाव से, बिलकुल सीधी मन की गहराई को छूने वाले सरल शब्दों में अपने मन की बात कह दी। इनके प्रवचन मानव समाज ही नहीं वरन् समूचे राष्ट्र को, विभिन्न धर्मों को एक सूत्र में बाँधने की प्रेरणा देते हैं ।
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