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________________ 'दिव्यविभूति श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' | १०३ मानव जीवन का परम लक्ष्य परमात्मा में मिलना है, परमात्मा के चरणों में अपने आपको समर्पित करना है । वास्तव में निष्कपट होकर परमात्मा के चरणों में अपने आपको समर्पित कर देना ही परमात्मा की अर्चना है। प्रभु तक अर्चना के फूल ले जाने की साधक को सुदीर्घ यात्रा उभयमुखी होती है, एक बाह्य-मुखी और दूसरी अन्र्तमुखी । 'अर्चना के फूल' लोक-यात्रा और अन्तर्यात्रा दो भागों में विभक्त हैं तथा दो भागों में विभक्त करके दोनों ही प्रकार की यात्राओं में आने वाले विघ्नों, प्रलोभनों आदि से यात्री को सावधान किया गया है। प्रत्येक प्रवचन परमात्मा की अर्चना के लिये एक-एक फल है, जिसको लेकर जीवन यात्री बड़ी सावधानी से प्रभु तक पहुँचता है। 'अाम्रमंजरी' में संकलित प्रवचन तीन भागों में विभक्त हैं—(१) अध्यात्म और साधना, (२) मानव दिशायें और बिन्दु, (३) मनुष्य और समाज । ___ 'पाम्रमंजरी', 'अर्चना के फूल' तथा 'अर्चना और आलोक' के द्वितीय, तृतीय संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसी से इनकी लोकप्रियता व उपयोगिता प्रमाणित होती है। __भारतीय-संस्कृति के समस्त विचारकों-तन्वचिन्तकों एवं मननशील ऋषि मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग एक आध्यात्मिक साधना है । प्रात्म-विकास की एक प्रक्रिया है। विश्व का प्रत्येक प्राणी अपना आत्म-विकास करने के लिये पूर्णत: स्वतन्त्र है । दुनिया की कोई भी क्रिया क्यों न हो, उसे करने के लिए पहले ज्ञान आवश्यक है। आत्म-साधना करने के लिये भी क्रिया के पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है । ज्ञानपूर्वक किया गया आचरण ही योग है, साधना है। प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत योगग्रन्थचतुष्टय का हिन्दी रूपान्तर इनके मार्गदर्शन, संयोजन में हुआ है, जिसमें योग के अधिकारी का उल्लेख किया है। जो जीव चरमावर्त में रहता है अर्थात् जिसका काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यातत्व-ग्रन्थि का भेदन कर लिया है और जो शुक्ल-पक्षी है, वह योग-साधना का अधिकारी है। वह योग-साधना के द्वारा अनादिकाल से चले आ रहे अपरिमित संसार या भव-भ्रमण का अन्त कर देता है। सम्पादन-कला में भी ये सिद्धहस्त हैं। 'जीवन संध्या की साधना' इनके द्वारा सम्पादित पुस्तक है । जिसमें आत्मोत्थान की उत्तमोत्तम सामग्री का संकलन है। जैसे विश्व शांति में भंग डालने का यदि जाल रचाया हो, राष्ट्रों और समाजों को यदि फूट डाल भड़काया हो। पर को लड़ा भिड़ा कर मैंने यदि निज स्वार्थ बनाया हो, निज ललाट पर देशद्रोह का, काला तिलक लगाया हो । हो पापों की निर्जरा, प्राप्त होय सद्ज्ञान , निजानन्द पद पाय के, करूं आत्म-कल्याण ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only Apar.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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