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आशीर्वचन
- आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी म. भारतीय संस्कृति में नारी को अत्यन्त गरिमामय स्थान प्राप्त है। कहा भी है-'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ॥'
देवाधिदेव श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने शासन में स्त्री-वर्ग को सन्माननीय स्थान प्रदान किया है। शास्त्रकार कहते हैं
इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स।
संसारसागराओ तारेइ नरं व ना नारि वा ॥ भगवान की नजर में नर और नारी तो क्या, लोकाकाश में रहे हए समस्त जीव समान हैं । 'सवि जीव करू शासनरसी' इस सर्वोत्कृष्ट भावना की चरमसीमा प्राप्त कर वे तीर्थकर बने थे। उनके शासन में वर्ण-भेद, जाति-भेद या लिंग-भेद नहीं है । समता भाव जिनशासन का प्राण है। इसीलिए परमात्मा के तीर्थ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका पद को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका को लेकर ही चतुर्विध संघ बना है। प्रवर्तिनी साध्वी चन्दनबाला छत्तीस हजार साध्वियों में प्रमुख थी।
जिनशासन के संवर्धन में समय-समय पर साध्वी-वर्ग ने भी अपूर्व योगदान दिया है। सच तो यह है कि साध्वी-वर्ग के अभाव में चतुर्विध संघ ही अपूर्ण हो जाता है। साध्वियों ने कई बार संयम-भ्रष्ट होते हुए जीवों को संयम मार्ग में स्थिर किया है। साध्वियां ही नहीं, धर्मशीला श्रविकाओं ने भी मार्ग भूले श्रमणों को धर्म-मार्ग में स्थिर किया है। राजीमती ने रथनेमि को और रूपकोशा ने सिंह गुफावासी मुनि को अपनी चतुराई से संयम धर्म में स्थिर करके सम्यग्दर्शन के स्थिरीकरण अंग को सार्थक किया था।
वर्तमान में भी अनेक साध्वी रत्न विद्यमान हैं; जो अपने निर्मल चारित्र से संसार को आलोकित कर रहे हैं। महासती उमरावकुंवरजी भी संयममार्ग का पालन करते हुए अपने पंच महाव्रतों में निखार ला रही हैं और भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर कर रही हैं। उत्तर में काशमीर प्रदेश में भी विहार करके उन्होंने जिज्ञासुनों को धर्मामृत पिलाया है।
परमात्मा के शासन के प्रति वफ़ादार रहते हुए संयममार्ग में आगे कदम बढ़ाने वाली साध्वी की दीक्षापर्याय का यदि अभिनन्दन और गुणानुवाद किया जाता है, तो यह सर्वथा उचित ही है।
हम साध्वी उमरावकुंवरजी के आत्मिक विकास की मंगल-कामना करते हैं और आपके शुभ प्रयास की भी सफलता चाहते हैं ।
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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