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________________ साधना की सप्राणता : कायोत्सर्ग रमेश मुनि शास्त्री [उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी के शिष्य] जैन साधना बहु आयामी है, उसकी गति वीतरागता की ओर है। भौतिक सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का जीवन में कोई मूल्य-महत्त्व यहाँ स्वीकार नहीं किया गया। जो यह मानता है कि मैं सम्पन्न-विपन्न हूँ, साक्षर-निरक्षर हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूँ, सुखी-दुःखी हूँ. राजारंक हूँ, वह जैन धर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है, उसे अपने अस्तित्व की यथार्थता का परिबोध नहीं है; वह मोहासक्त है, मिथ्यात्व में जीता है । वह व्यामोह की महावारुणी पिये हुए है। उसे जब गुरु-प्रसाद से अपने अस्तित्व का अपने जीवन के मूल्य का परिज्ञान होता है और संसार की असारता का दर्शन खुली आँखों से करता है तो वह इन सभी से विरक्त होकर अन्तर्मुख हो जाता है । तब उसे समूचा बाहरी वैभव छलावा लगने लगता है, बाह्य सौन्दर्य में उसे विरूपता दिखाई देने लगती है। वह सर्व ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है । तब वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। भेदविज्ञान उस में जाग उठता है और वह स्वयं अपने लिए दीपक बन जाता है। वह अपने में से कर्तृत्व-भाव को समाप्त कर देता हैं और अपनी प्रान्तरिक क्षमताओं की अनुद्घाटित परतों को उद्घाटित करता है। यह ध्र व सत्य है कि साधना अध्यात्मक्षेत्र की चरम और परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करने का एक महामन्त्र है। उसका क्षेत्र-विस्तार अनन्त आकाश की भांति असीम है। अध्यात्म-साधना के अगाध-अपार महासागर में जीवन भर अवगाहन करने पर भी अन्ततः लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी संस्पर्श नहीं हया है। निष्कर्ष यह है कि जैन साधना की असीमता को ससीम शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता ! तथापि उसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि अध्यात्म-साधना का अभिनव-अभियान विनाश की अोर नहीं, विकास की ओर है, पतन की ओर नहीं, उत्थान की ओर है, अवरोहण की ओर नहीं, प्रारोहण की ओर है जो साधना-मानव को अन्तर्दर्शन की सप्राण-प्रेरणा नहीं देती या अन्तर्दर्शन नहीं कराती, वह साधना नहीं, अपितु विराधना है। "आवश्यक" जैन साधना का प्राणतत्त्व है। वह जीवन विशुद्धि और दोष परिमार्जन का ज्वलन्त-जीवन्त महाभाष्य है। आत्मा को निरखने एवं परखने का एक सर्वथा सफल साधन हैं । आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप अध्यात्मज्योति का विकास पावश्यक क्रिया के बिना कथमपि नहीं हो सकता । अत: जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही अावश्यक अध्यात्मसाधनारूप है। आवश्यक परिभाषा जो अवश्य किया जाए, वह प्रावश्यक है।' श्रमण और श्रावक दोनों ही दिन मौर रात्रि १. अवश्यकरणाद् आवश्यकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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