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संस्कृत साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान | २७५
जाता है। प्राचार्य गुणभद्र प्रथम आचार्य थे जिन्होंने प्रात्मानुशासन जैसे ग्रन्थ की रचना करके आध्यात्मिकजीवन व्यतीत करने पर जोर दिया। इसमें २७० काव्य हैं जिनमें आत्मा, प्रात्मा की क्रियाएँ, एवं शरीर आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रात्मानुशासन जैन साहित्य का बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसकी कितनी ही प्रतियाँ राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध होती हैं।
अमितिगति का योगसार अध्यात्म विषय की उत्तम कृति है। इसमें ९ अधिकार हैं। इसका दूसरा नाम गीतवीतराग भी है। योगसार सरल भाषा में निबद्ध उच्चस्तरीय कृति है। इन्हीं का सामायिक पाठ आत्मचिंतन के लिये सुन्दर कृति है।
१०वीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य अमृतचन्द्र अध्यात्म के पारंगत विद्वान् एवं साधक थे। इन्होंने प्राचार्य कुन्द-कुन्द के समयसार पर आत्मख्याति टीका एवं कलश टीका लिखी। इन दोनों का ही समस्त जैन समाज में ऊंचा स्थान है। इसकी सैकड़ों पाण्डलिपियाँ उपलब्ध होती हैं।
तपागच्छ के प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरि द्वारा निबद्ध अध्यात्मकल्पद्रुम अध्यात्मविषयक अच्छी कृति है । प्रस्तुत ग्रन्थ १९ अध्यायों में विभक्त है। इसी गच्छ में होने वाले यशोविजयसूरि ने अध्यात्मसार ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें ९४८ पद्य हैं जो सात अध्यायों में विभक्त हैं।
महापंडित प्राशाधर के अध्यात्मरहस्य की उपलब्धि कुछ ही वर्षों पूर्व अजमेर के भट्टारकीय शास्त्रभण्डार से हुई थी। १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पं० राजमल्ल ने अध्यात्मकल्पद्रम की रचना समाप्त की थी। इसी तरह सोमदेव की अध्यात्मतंरगिणी एवं उपाध्याय यशोविजय की अध्यात्म उपनिषद अध्यात्मशास्त्र की अच्छी रचना मानी जाती है।
जैनाचार्यों में उक्त विषयों के अतिरिक्त कथासाहित्य, सुभाषित एवं नीतिशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, छन्दशास्त्र, कोष एवं पूजा साहित्य में सैकड़ों रचनायें निबद्ध करके संस्कृतसाहित्य के विकास में जो योग दिया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित रहेगा।
-जयपुर
धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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