SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 805
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / २६० गोम्मटसार ग्रन्थ में मनुष्य की परिभाषा दी गई— जो मनु की सन्तान हो, मति और मनवान् हो वह मनुष्य है। मनु यानी सुधर्म का प्रतिनिधि, पध्यात्म की दिशा में स्व ( आत्मा ) और पर (शरीर ) का भेदविज्ञानी और लोक-जीवन की दिशा में स्व (अपना) पर ( पराया) भेद भाव रहित उदारहृदय, जीवन्मुक्त पन्त ( पूज्यतम पुरुष ) पर प्रास्था रखने वाला हो, उसका उत्तराधिकारी अनुयायी हो। जिसके मन हो अर्थात् अपना भला-बुरा, सोचने-समझने, करने-कराने की शक्ति हो, जो मन से मनुष्य को मनुष्य समझे, माने और स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व का भाव रखे, वही मन मन है, अन्यथा मन माप का मन है, ताप का मन है, पाप का मन है, पर जाप का मन नहीं, श्रापका मन नहीं, नाप का मन नहीं है बल्कि शाप का मन है । मति से प्राशय बुद्धि- मनीषा, धिषणा-धी, प्रज्ञा-शेमुषी का है । मति से अभिप्राय स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध का है । बुद्धि बल से बड़ी है और मनीषा छल से दूर खड़ी है तथा धिषणा को तृष्णा तो फूटी पाँखों भी नहीं सुहाती है एवं धी मनुष्य को जहाँ सुधी बनने की प्रेरणा देती है, वहाँ कुधी से बचने की भी प्रेरणा देती है। प्रज्ञा तो वह छैनी ही है, जो अज्ञान के अरावली को तोड़ फोड़ कर दिन-रात ज्ञान के द्वार खोलने में लगी है। शेमुषी शम उषा का स्वप्न सँजोए है। मति, मतभेद लेकर भी मनभेद की रोकथाम कर रही है। स्मृति, अतीत को नहीं भूलने वाली है तो संज्ञा प्रतीत और वर्तमान को जोड़ने वाली कड़ी है और चिन्ता तो त्रिकालदर्शी बनने के लिए चिन्तित ही रहती है तथा अभिनिबोध अपने अध्ययन-अनुभव अभ्यास के अस्त्र लिए मानवता को विनाश के कगारों से हटाने में लगा है। मतिज्ञान की सुलभ सामग्री न तो स्वयं की है और न इस जन्म की है बल्कि यह श्रुतज्ञान की भी है और श्रवण श्रमण परम्परा की भी है। तीर्थंकरों की दृष्टि से मति और श्रुत, ये दो ज्ञान संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। अक्षर के अनन्त भाग ज्ञान तो निगोद के जीवात्मा को भी होता है । इतना न हो तो जीव प्रजीव बन जावे । तत्त्वव्यवस्था गड़बड़ हो जावे । जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञान है, जहाँ ज्ञान है, वहाँ श्रात्मा है । , मन मोदक है; मन ओदन है । मन लोहा है, मन सोना है । मन जीरा है, मन हीरा है । मनमौजी है, मन मौनी है । मन नटखट है, मन झटपट है । मन करवट है, मन सलवट है । मन मरघट है, मन घट-पट है । मन चटपट है, मन खटखट है । मन कटमर है, मन मर्कट है । मन जड़ है, मन चेतन है । मन निराशा है, मन आशा है। मन दिन है, मन रात है । मन गरमी है, मन सरदी है । मन स्वभाव है, मन विभाव है । मन प्रभाव है, मन जमाव है । मन हाव है, मन भाव है। मन चाव है, मन अलगाव है। मन तन हार है, मन मनहार है । मन मनिहार है, मन मनुहार है । मन पूर्व है, मन पश्चिम है। मन उत्तर है, मन दक्षिण है । मन शैतान है, मन हैवान है । मन बेईमान है, मन ईमान है । मन असत्य है, मन सत्य है । मन मायावी है, मन बेताबी है मन छल है, मन बल है। मन बालक है, मन युवा है। मन प्रौढ़ है, मन वृद्ध है | मन कंस है, मन कृष्ण है । मन रावण है, मन राम है । मन श्रानन्द है, बुद्ध है । मन गौतम है, मन महावीर है । मन शाला है, मन माला है । मन हाला है, मन ताला है। मन गोरा है, मन काला है। मन धर्म है, मन दर्शन है। मन साहित्य है, मन संस्कृति है। मन हिन्दी है, मन संस्कृत है। मन भरता है। मन मरता है। मन आदि है, मन धन्त है। मन मध्यम है, मन माध्यम है । मन शेष है, मन लेश है। मन गणेश है, मन महेश है । मन मक्कार है, मन सत्कार है । मन दुत्कार है, मन पुचकार है । मन बिन्दु है, मन सिन्धु है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy