SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन : एक चिन्तन : विश्लेषण : २६१ मन इन्दु है, मन हिन्दु है । मन तूर्य है, मन सूर्य है। मन वेश है, मन देश है। मन दायें है, मन बाएँ है। मन ऊपर है, मन नीचे हैं। मन जीवन है, मन जंजाल है । मन समझना सरल है, मन समझना जटिल है। मन अनियन्त्रित है, मन नियन्त्रित है । मन फिदा है, मन विदा है, मन कुछ नहीं, मन सब कुछ है । मन भ्रामक है, मन नियामक है। मन छोटा है, मन मोटा है। मन प्रश्न है, मन उत्तर है। मन मृत्यू है, मन जीवन है। मन की सृष्टि मन के दो भेद हैं:-(१) द्रव्य मन (२) भाव मन । द्रव्य मन पोद्गलिक रचना है; इसका जीवन धड़कन है। यह शरीर की घड़ी का पेण्डलम है और जीवन की घड़ी की सूचना है । यह नाड़ी का मूल प्राधार है । यह वंशानुक्रम से प्रभावित होता है। मनुष्य का मन एक मन्दिर है, उसमें आत्मदेव प्रतिष्ठित है; वहाँ जो जैसी आवाज लगाता है, वह वैसा व्यवहार पाता है। द्रव्य मन, भाव मन का आधार है। जैसे वस्तु की संख्या गुणवत्ता पर बाजार-भाव है, वैसे द्रव्य मन के आधार पर भाव मन भी न्यूनाधिकता, उत्थान-पतन, संकोच-विस्तार लिए ज्वार-भाटा बना है । द्रव्य मन की अपेक्षा भाव मन की उतनी अधिक शक्ति और सत्ता है कि जितनी भी शक्य और सम्भव है। यह भाव मन की सजगता का ही सुपरिणाम है कि वह भोगी से रोगी और योगी भी बनता है। संयोगी, वियोगी, नियोगी ये सब भाव मन की देन हैं । भाव मन से ही नर नारायण, आत्मा परमात्मा, अप्पा परमप्पा है। भाव मन से ही साधक-साध्य, आराधक-प्राराध्य है। भाव मन से प्रास्रव बन्ध संवर-निर्जरा है। भाव मन से ही स्वर्ग-अपवर्ग है। भाव मन से ही गूणस्थान, जीव समास, मार्गणा हैं। भाव मन का विश्व अपने में एक ही है, प्रत्येक प्राणी मन पर रीझा है। मन का महल छोटा होकर भी बहुत बड़ा है। मन, दैनिक पत्र-प्रकाशन कार्यालय के समान है, जिसका स्थान सीमित हैं, पर रचना-संसार असीमित है । अ-मन के अखबार मनुष्य अतीव अमन के साथ पढ़ते हैं पर मन के अखबार विरले पढ़ते हैं । जो नहीं पढ़ना चाहिए, वह दिन-रात अाँखे फाड़ फाड़ पढ़ते हैं। लगता है कि मन नादानी के साथ मनमानी भी करता है। जब तक मन की मनमानी नहीं मिटती है तब तक मनुष्य अमनुष्य रहेगा, मनुष्य नहीं बनेगा, युद्ध के लिए प्रस्तुत होगा, अयुद्ध के लिए अप्रस्तुत । मनुष्य के शरीर में बायीं ओर स्थित मन, जाग्रत अवस्था की तो कौन कहे; निशीथ के सपनों में भी मिलखासिंह धावक बनकर दौड़ लगाता रहता है। मन, चंचलता में मर्कट को मात देता है और गतिशीलता में पवन से बाजो मार जाता है । महाभारत के 'यक्ष-युधिष्ठिर संवाद' में मन को मरुत से बढ़कर बतलाया गया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा-जहाँ मन है, वहाँ मरुत है, जहां मरुत है, वहाँ मन है। दोनों परस्पर कारण-कार्य हैं।' मन ही हार-जीत, बन्धन-मुक्ति का कारण है। - मन का सम्बन्ध उपयोग से है। चेतना और वेदना से है। इस दृष्टि से मन के तीन भेद हैं:-(१) अशुभ मन (२) शुभ मन (३) शुद्ध मन । संक्षेप में समझे १. मनो यत्र मरुत् तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतो संवीती क्षीरनीरवत् ।। धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy