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________________ Jain Education International द्वितीय खण्ड / ११४ मैं उन द्वारा लिखित 'अग्निपथ' नामक पुस्तक भी पढ़ चुका था, जिसमें उनके संघर्षमय, तितिक्षामय, करुणाकलित व्यक्तित्व की झलक मिलती है । जब मैंने उनके पहले पहल दर्शन किए तो मेरे द्वारा उक्त पुस्तक में पढ़े गये विषय अपने प्रभामय रूप में मेरे सम्मुख मूर्तिमान् से हो उठे । मेरा मस्तक सहसा झुक गया उस महान् नारी के समक्ष, जिसने कुसुमवत् कोमल किशोरावस्था में अपने प्रचुर, प्रबल, प्रवर आत्मबल द्वारा उस वज्रोपम विषम दुःखाघात को, जो उनके पतिदेव के समय में ही कालकवलित हो जाने से प्रादुर्भूत हुआ, अध्यात्म की ग्राह्लादानुभूति में बदल । बहुत तो नहीं किन्तु जो थोड़ा बहुत सुग्रवसर मुझे तब महासतीजी की सेवा में बैठने का प्राप्त हुआ, मैंने अनुभव किया, निःसन्देह उनके जीवन में जैनत्व की अद्भुत दिव्यता परिव्याप्त है, जो एक अनिर्वचनीय प्रभा लिए है । महासतीजी के दर्शन का दूसरा अवसर सन् १९७३ में प्राप्त हुआ, जब महान् अध्यात्मसाधक, परम स्वाध्यायरत, धर्मशासन के अनन्यसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलाल ० सा०, प्रखर मनीषी, उद्बुद्धज्ञानयोगी बहुश्रुत पण्डितरत्न युवाचार्य - प्रवर मुनिश्री मिश्रीलालजी म० सा० 'मधुकर' का चातुर्मास नोखा में था तथा महासती श्री उमरावकुंवरजी म० सा० 'अर्चना' का चातुर्मास बिलाड़ा में था । नोखा में महापुरुषद्वय की प्राध्यात्मिक सन्निधि का लाभ लेने के अतिरिक्त बिलाड़ा में महासतीजी म० की सत्संगति एवं सेवा का भी सुप्रवसर प्राप्त हुआ । दोनों ही हमारे लिए बड़े प्रेरक एवं उद्बोधप्रद थे । प्रस्तुत निबन्ध महासतीजी म० व्यक्तित्व, कृतित्व से सम्बद्ध है, अतः उनके विषय में कुछ विशेष अभिव्यक्ति करने का सोचता हूँ, तो सहसा प्रतीत होता है, वास्तव में उनकी प्रज्ञा एवं अभिव्यंजना बड़ी प्रद्भुत है । वे गंभीरातिगंभीर विषयों को भी न्यूनतम, सरलतम शब्दों में प्रकट करने में नितान्त कुशल हैं। मैंने उनकी निरूपण-पद्धति में एक असामान्य विशेषता देखी । वे अपना निरूप्य इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं, जिससे श्रोता को वह सहसा हृदयंगम हो जाये, इतने मधुर शब्दों में वे बात रखती हैं, श्रोता प्रतिकूल भी यदि वह हो तो उसका दिल नहीं दुखता और उसे वह हृद्य प्रतीत होती है । मेरा, हमारे सभी पारिवारिक जनों का यह सौभाग्य है कि महासतीजी म० सा० के दर्शन का सुअवसर हमें उत्तरोत्तर मिलता रहा । सन् १९७५ में तथा सन् १९७७ में भी उनके दर्शन किये । सन् १९७७ में नोखा में अक्षयतृतीया का अवसर था, वर्षीतप के पारणे थे । स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म० सा०, युवाचार्यप्रवर श्री मधुकरमुनिजी म. सा०, महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० प्रभृति साधु-साध्वीगण वहाँ विराजित थे । तब युवाचार्य-प्रवर ने मेरी साहित्यिक अभिरुचि के सम्बन्ध में महासतीजी म० को विशेष रूप से परिचय कराया। महासतीजी, जिनके जीवन का विद्यापक्ष- साहित्यिक पक्ष प्रारम्भ से ही बड़ा उर्वर एवं उन्नत रहा है, ने इस पर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की । जैसा मुझे विदित हुआ, वे न केवल यह मानती रही हैं, वरन् समाज के बालक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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