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________________ महासती श्री उमरावकुंवरजी म० 'अर्चना' / ११५ बालिकाओं को प्रेरित भी करती रही हैं कि विद्या एवं साहित्य किसी भी समाज के चिरन्तन अस्तित्व के अनन्य उपादान हैं, सांस्कृतिक अभिव्यंजना के दिव्य स्रोत हैं । मेरे परिवार को, विशेषतः महिलाओं को, बालक-बालिकाओं को, हमारे राजस्थान - प्रवास के अवसरों पर जो प्राय: साथ रहे हैं, अपने जीवन में धार्मिक संस्कार संजोने की पूजनीया महासतीजी म० से बड़ी प्रेरणा प्राप्त होती रही है । उनके शुभ, समुज्ज्वल अध्यात्मसंपृक्त व्यक्तित्व का एक ऐसा पवित्र प्राकर्षण है कि जब भी उनके सान्निध्य का सुश्रवसर मिलता है, परिवार के बालक-बालिकाएं उन्हें घेरे रहते हैं । महासतीजी म० उन्हें जो आध्यात्मिक स्नेह देती रहती हैं, वह उनके जीवन के लिए निःसन्देह एक वरदान है । मुझे स्मरण करते बड़ा हर्ष होता है, मेरी पुत्री जयन्ती और कला से श्रद्धास्पदा महासतीजी म० के पास ही भक्तामर का अध्ययन प्रारंभ किया, जो आगे विकसित होता गया । महासतीजी म० की यह अपनी अप्रतिम विशेषता है, वे बालक-बालिकाओं में बड़ी रुचि लेती हैं और उन्हें मातृवत् आध्यात्मिक वात्सल्य से अनुप्राणित करती रहती हैं । जैन संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के अभ्युदय तथा विकास का आधार चतुविध धर्मसंघ है, जो श्रमण-श्रमणी श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका के रूप में चार सबल, सुन्दर स्तंभों पर टिका है। श्रमण जीवन संयम एवं साधना के समग्र परिवेश में प्रतिष्ठित होने के कारण परम पवित्र है । जो अपनी दुर्बलताओं के कारण श्रमणजीवन स्वीकार करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं, वे श्रमण श्रमणियों की उपासना, सान्निध्य तथा सत्संगति से प्रेरित, प्रभावित एवं ग्रनुप्राणित होते हैं और यथाशक्ति व्रतमय जीवन अंगीकार करते हैं । श्रमणोपासक और श्रमणोपासका शब्दों की यह सार्थकता है । श्रमण श्रमणी तथा श्रमणोपासक - श्रमणोपासिका - इनका पारस्परिक संबंध गुरु-शिष्य का पवित्र संबंध है, जिससे गृही वर्ग को धार्मिक जीवन जीने में स्फूर्ति और शक्ति प्राप्त होती रहती है । पूजनीया महासतीजी म० का और हमारा यही शाश्वत संबंध है, जिसके मूल में अध्यात्मचेतना तथा संयमनिष्ठ प्रास्था की प्राणप्रतिष्ठा । इस अर्थ में गुरुवर्या महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. "अर्चना" हम सब के लिए प्राध्यात्मिक प्रेरणा की निश्चय ही पावन स्रोतस्विनी हैं । हमें अपने धार्मिक जीवन में सदैव उनसे संबल प्राप्त होता रहता है । हमारा यह गुरु-शिष्यात्मक सात्त्विक संबंध उत्तरोत्तर वृद्धिशील है, जिसे मैं और मेरे पारिवारिक जन अपना सद्भाग्य समझते हैं । यहाँ एक बात का विशेषरूप से उल्लेख करना चाहूँगा । जब मैं मद्रास में जैनोलॉजी के कार्य में प्रवृत्त हुआ, तब पूजनीया महासतीजी म० से मुझे जो प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं आशीर्वाद मिला, वह मेरे लिए अत्यन्त स्फूर्तिप्रद सिद्ध हुआ । उन्होंने इस बात पर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की कि उनका एक उपासक जैन- विद्या, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के प्रसार तथा प्रभ्युदय के पुनीत कार्य में जुटा है । महासतीजी म० सा० की दृष्टि में किसी भी धर्म और संस्कृति की चिरजीविता उसके दर्शन या तत्त्वज्ञान के समुज्जीवन, संवर्धन और सम्प्रसार में है । Jain Education International For Private & Personal Use Only w.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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