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________________ संत और पंथ आत्मार्थी बंधुप्रो ! आज हम संत और पंथ की समानताओं पर विचार करेंगे। आपको आश्चर्य तो होगा कि एक चेतन है और दूसरा जड़, भला इनमें समानता कैसी? किन्तु फिर भी इनमें समानता है और किस प्रकार है यही हमें देखना है । संत और पंथ या 'पथ' दोनों ही प्राणियों के लिये आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं। इन दोनों की सहायता से ही मानव भौतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में अग्रसर होता है तथा अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करता है। (१) दोनों एक ही पृथ्वी पर पहली समानता दोनों में यह है कि ये दोनों इसी पृथ्वी पर हैं । आज के युग में आवागमन इतना बढ़ गया है कि पंथ और दूसरे शब्दों में पथ या मार्ग के अभाव में मनुष्य पंगु होकर रह जाता है । पृथ्वी पर चारों दिशाओं में मार्गों का जाल सा फैला हुआ है। इन्हीं पर चलकर मानब रेल, बस, तांगा, बैलगाड़ी अथवा पद-यात्रा करके भी एक शहर से दूसरे शहर और एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचता है। पथ ही उन्हें अपने निदिष्ट मंजिल की ओर ले जाता है तथा मनुष्य मार्ग-द्वारा जाकर ही अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने की सुख-सुविधाएँ जुटाता है तथा पारिवारिकजनों, इष्ट-मित्रों और संत-महापुरुषों की संगति का लाभ उठाता है। पंथ के समान ही संत भी इसी पृथ्वी पर होते हैं। हमारा भारत सदा से धर्म-प्रधान रहा है। यहाँ की पावन और यशस्वी धरा पर प्रत्येक समय, काल या युग में ऐसे-ऐसे महान संतों ने जन्म लिया है, जिनके द्वारा पथ-भ्रष्ट, अज्ञानी, कर, हिंसक और अपने पाप-कर्मों से दुर्गति की ओर बढ़नेवाले प्राणियों को ज्ञान का प्रशस्त आलोक-पथ मिला है और महान संतों के पथ-प्रदर्शन से मन को आध्यात्मिकता की ओर मोड़कर उन्होंने साधना के राजमार्ग पर चलते हुए संसार-मुक्तिरूपी मंजिल प्राप्त की है। इतना ही नहीं, सच्चे संत, श्रमण अथवा साधक में साधना की एवं प्राणीमात्र के प्रति समभाव और प्रेम की ऐसी अलौकिक शक्ति जागृत हो जाती है कि वह सिंह और सर्प जैसे विषधर को भी बोध देने में समर्थ हो जाते हैं। श्रमण भगवंत महावीर का उदाहरण आप सभी को ज्ञात है कि वे लोगों के बारंबार मना करने पर भी विषधर चंडकौशिक सर्प के समीप पाए और उन्होंने उसके वज्र-विषदंतों के विष को अमृत में बदलकर बोध दिया "संबुज्झह किं न बुज्मह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। नो हवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीविकं ॥ समाहिकामे समणे तवस्सी " जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है। 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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