SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • अर्थ ना चं न. तृतीय खण्ड ल पर उ. . ' 5 क्ल ब विषधर के प्रति प्रेम, दया, क्षमा एवं कर्तव्य की विजय हुई तथा भयंकर विषधर नाग भी परास्त होकर पानी-पानी हो गया । आत्मग्लानि एवं पश्चात्ताप के कारण अंत में मनुष्यों के असंख्य प्रहार सहकर भी क्रोध की भावना का सम्पूर्ण रूप से परित्याग करके जीवनांत के समय ऊर्ध्वगामी बना। कहने का अभिप्राय यही है कि इसी पृथ्वी पर ऐसे महान संत, योगी और ऋषि पाए जाते हैं जो यात्री को मंजिल पर पहुँचाने वाले पथ के समान ही मुमुक्षु को मोक्ष-रूपी मंजिल तक पहुँचाने में भी सक्षम होते हैं । (२) संत और पंथ, दोनों के विषय में जानकारी यथार्थ हो यथार्थ जानकारी के अभाव में पथिक, पथ पर निरंतर चलकर भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच सकता । इसीलिये किसी भी शहर, गाँव, बस्ती अथवा नदी-तालाब की ओर भी जाना हो तो अपने कदम बढ़ाने से पूर्व वह अन्य व्यक्तियों से मार्ग की जानकारी करता है। अनेक बार तो वह किसी एक के मार्ग-दर्शन पर विश्वास न करके कई व्यक्तियों से सही मार्ग की पुष्टि करता हुअा चलता है, साथ ही मील के पत्थरों पर अथवा पथ पर लगे हुए बोर्डों पर अपने इच्छित गाँव का नाम पढ़कर आगे बढ़ता है। इस प्रकार अनेक सावधानियां बरतता हुया वह उस मार्ग पर विश्वास करता है, जिस पर चलना चाहता है या चल देता है। सही जानकारी के अभाव में अगर वह उन्मार्ग पर चल पड़ेगा तो निश्चय ही उसका गन्तव्य किसी और दिशा में रह जाएगा और वह इतस्तत: भटकता ही रहेगा। सच्चे संत की जानकारी के विषय में भी ठीक यही बात है। अगर मानव अपनी मोक्ष-रूपी मंजिल को पाना चाहता है और उसे ही अपनी गन्तव्य मानता है तो उसे सच्चे पंथ-रूपी संत की सही पहचान करनी होगी तथा उसके विषय में पैनी दृष्टि से जानकारी हासिल करनी पड़ेगी, अन्यथा उसकी आत्मा को मुक्ति-रूप मंजिल तक पहुँचना तो दूर संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए अनन्त काल तक भटकते रहना होगा। आजकल हम कदम-कदम पर साधु वेश-धारी व्यक्तियों को देखते हैं । वे विभिन्न प्रकार के बाने पहनकर तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाओं के द्वारा भोले व्यक्तियों के मन को जीतकर स्वयं को संत-महात्मा कहलवाने लगते हैं । अनेक नगरों में बड़े-बड़े मन्दिर और उनमें महन्त होते हैं, किन्तु उनके जीवन की वास्तविक स्थिति कैसी होती है ? मंदिरों में चढ़ाया जानेवाला अपार धन एवं भोग आदि का भंडार उनके हाथ में होता है, जिसके द्वारा वे राजा-महाराजा के सदृश रहते हैं, किन्तु त्याग के नाम पर शून्य तथा उसके स्थान पर सभी कषाय विद्यमान रहते हैं। ऐसे संत-महात्मानों के भक्त भी अनेक प्रकार के लोभ और लालच को हृदय में बसाए हुए उनकी भक्ति और पूजा के द्वारा लौकिक एषणाओं की पूर्ति एवं मुक्ति की अभिलाषा 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy