________________
चतुर्थ खण्ड | २१४
पर्याप्त हैं जो शास्त्रीय परम्परा में सर्वोच्च ठहरते हैं, प्रालंकारिक चामत्कारिता, शब्दक्रीड़ा और छन्दशास्त्रीय मर्यादा-पालन में होड लेते प्रतीत होते हैं। पर यह प्रवृत्ति जैन साहित्य की सामान्य वृत्ति नहीं है । शैलीगत समन्वय भावना के दर्शन वहाँ स्पष्ट हो जाते हैं, जहाँ वे अपने नायक को मोहन और नायिका को गोपी कह देते हैं । लगता है जिस समय वैष्णव धर्म और वैष्णव साहित्य का अत्यन्त व्यापक प्रचार था, उस समय जन-साधारण को अपने धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए इन साहित्यकारों ने अपने साहित्य में कृष्ण, राधा, गोपी, गोप, गोकुल, मुरली, यशोदा, जमुना, आदि शब्दों को स्थान दे दिया। विभिन्न देशिया तो लगभग वैष्णव प्रभाव को ही सूचित करती हैं।
जैनकाव्य में जो नायक आये हैं उनके दो रूप हैं, मूर्त और अमूर्त । मूर्त नायक मानव हैं, अमूर्त नायक मनोवृत्ति विशेष । मूर्त नायक साधारण मानव कम, असाधारण मानव अधिक हैं । यह असाधारणता पारोपित नहीं, अर्जित है। अपने पुरुषार्थ, शक्ति और साधना के बल पर ही ये साधारण मानव विशिष्ट श्रेणी में पहुंच गये हैं । ये विशिष्ट श्रेणी के लोग त्रेसठशलाका पुरुष के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, और प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं । इनके अतिरिक्त सोलह सतियां, स्थूलिभद्र, जम्बूस्वामी, सुदर्शन, गजसुकुमाल, श्रेणिक, श्रीपाल, धन्ना, प्राषाढ़भूति, आदि प्रालेख्य योग्य हैं। ये पात्र सामान्यत: राजपुत्र या कुलीन वंशोत्पन्न होते हैं । सांसारिक भोगोपभोग की सभी वस्तुएँ इन्हें सुलभ होती हैं। पर ये संस्कारवश या किसी निमित्त कारण से विरक्त हो जाते और प्रव्रज्या अंगीकार कर लेते हैं। दीक्षित होने के बाद इन पर मुसीबतों के पहाड़ टूटते हैं। पूर्व जन्म के कर्मोदय कभी उपसर्ग बनकर, कभी परीषह बनकर सामने आते हैं। कभी-कभी देवता रूप धारणकर इनकी परीक्षा लेते हैं, इन्हें अपार कष्ट दिया जाता है पर ये अपनी साधना से विचलित नहीं होते। परीक्षा के कठोर आघात इनकी आत्मा को और अधिक मजबूत, उनकी साधना को और अधिक स्वणिम तथा उनके परिणामों को और अधिक उच्च बना देते हैं । अन्ततोगत्वा सारे उपसर्ग शान्त होते हैं, वेशधारी देव परास्त होकर इनके चरणों में गिर पड़ते हैं और पुष्पवृष्टि कर इनके गौरव में चार चांद लगा देते हैं । ये पात्र केवलज्ञान के अधिकारी बनते हैं, लोक-कल्याण के लिए निकल पड़ते हैं और अन्तत: परमपद मोक्ष की प्राप्ति कर अपनी साधना का नवनीत पा लेते हैं । प्रतिनायक परास्त होते हैं पर अन्त तक दुष्ट बनकर नहीं रहते । उनके जीवन में भी परिवर्तन आता है और वे नायक के व्यक्तित्व की किरण से संस्पर्श पा अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं।
अमर्त्त नायक में 'जीव' या 'चेतन' को गिना जा सकता है तथा नायिका में 'सुमति' को । अमूर्त प्रतिनायकों में 'मोह' सबसे बलशाली है और प्रतिनायिका में 'कुमति' को रख सकते हैं । चेतन राजा अपने प्रान्तरिक गुणों से शत्रु-सेना (मोह) को परास्त कर मुक्ति रूपी गढ़ का अधिपति बन बैठता है।
जैनकाव्य का अधिकांश भाग आगमसिद्धान्त को ही प्रतिपादित करने में लगा है। पर जैनकवियों की दृष्टि यहीं तक सीमित रही हो, ऐसा कहना एकान्त सत्य न होगा। सच तो यह है कि जैनदर्शन की समन्वय भावना ने जैनकवियों की दृष्टि को भी उदार बना दिया है। यही कारण है कि एक ओर तो उन्होंने विष्णु के अवतार समझे जाने वाले राम और कृष्ण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org