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________________ • राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २१३ विकसित हुए हैं । इस गद्य की यह विशेषता है कि इसमें अनुप्रासात्मक और अन्त्यानुप्रासमूलक शैली का प्रयोग किया जाता है। गद्य की तुकात्मकता संक्षेप में इन काव्यरूपों की सामान्य विशेषता है। हिन्दी में प्राधुनिक युग में चलकर जिस गद्य काव्य की सृष्टि की गयी, उसके मूल उत्स इन काव्यरूपों में ढूंढे जा सकते हैं। यह अलग बात है कि दोनों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर रहा हो। ( ग ) टीकात्मक गद्य टीकात्मक गद्य के निर्माण में जैन विद्वानों का योग सबसे अधिक रहा है। यह गद्य पाँच रूपों में हमारे सामने पाया चूर्णि प्रवचूर्णि टख्या वालावबोध, और वचनिका चूर्णि में मूल गाया का विवेचन और विश्लेषण बड़ी गहराई धौर सूक्ष्मता के साथ किया जाता है। एक प्रकार से विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से उनका मन्थन कर दिया जाता है, इसलिए इस रूप को 'चूर्णि' कहा गया 'अवचूर्णि' चूर्ण का संक्षिप्त रूप है 'टव्वा' एक प्रकार की सामान्य शैली है जिसमें मूल शब्द का अर्थ ऊपर-नीचे या पार्श्व में एक विशेष प्रकार की टीकाशैली है जिसमें मूल ग्रन्थ की मूल सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न कथायें भी दी जाती हैं। इस टीका को इतने सहज भाव से लिखा जाता है कि इसे बालक जैसा अपढ़ या मन्द बुद्धिवाला व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है । सम्भव है इसीलिए उसे 'बालावबोध' संज्ञा दी गयी है । 'वचनिका' मूलग्रन्थ का भाषानुवाद है, जो कलात्मक गद्य की वचनिका विधा से नितान्त भिन्न है । दे दिया जाता है। 'बालावबोध' व्याख्या ही नहीं की जाती, वरन् - कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैनकवियों ने पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में काव्यरूप सम्बन्धी कई नवीन प्रयोग किये। ये प्रयोग चमत्कार प्रदर्शन के लिए न होकर लोक मानस को प्रबुद्ध पौर संवेदनशील बनाने के लिए हुए इन प्रयोगों से यह लाभ हुआ कि काव्यरूपों की गतानुगतिक परम्परा, शास्त्रीयता के बन्धन से सहजता की घोर, कटिबद्धता से लौकिकता की श्रोर, प्रोर बने-बनाये सांचों से बाहर निकलकर लोकजीवन के व्यापक सांस्कृतिक परिवेश की ओर बढ़ी, प्रवाहित हुई । जैनकवि काव्य को कलाबाजी नहीं समझते। वे उसे प्रकृत्रिम रूप से हृदय को प्रभावित करने वाली धानन्दमयी कला के रूप में देखते हैं जहाँ उन्होंने लोकभाषा का प्रयोग किया वहाँ भाषा को अलंकृत करने वाले सारे उपकरण ही लोक जगत से ही चुने हैं। जैनेतर कवियों में (विशेष कर चारणी शैली में लिखित काव्य ) जहाँ भाषा को विशेष प्रकार के शब्द चयन द्वारा, विशेष प्रकार के अनुप्रास प्रयोग ( वयण सगाई श्रादि) द्वारा श्रौर विशेष प्रकार के छन्दोऽनुबद्ध द्वारा एक विशेष प्रकार का प्राभिजात्य गौरव और रूप दिया है, वहाँ जैनकाव्य भाषा को अपने प्रकृत रूप में ही रखकर प्रभावशाली और प्रेषणीय बना सके हैं। यहाँ अलंकारों के लिए ग्राग्रह नहीं। वे अपने ग्राप परम्परा से युगानुकूल चले आ रहे हैं। शब्दों में अपरिचित सा अकेलापन नहीं, उनमें पारिवारिक सम्बन्धों का सा उल्लास है। छन्दों में तो इतना वैविध्य है कि सभी धर्मों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों से वे सीधे खिचे चले घा रहे हैं। दालों के रूप में लोक देशियाँ अपनाई गई हैं। लोकोक्तियों और मुहावरों का जो प्रयोग किया गया है वे शास्त्रीय कम और लौकिक अधिक हैं। पर इस विश्लेषण से यह न समझा जाये कि उनका काव्यशास्त्रीय ज्ञान अपूर्ण था या बिलकुल ही नहीं था। ऐसे कवि भी Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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