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________________ योगानुभूतियाँ | २५७ प्रार्थना करते समय याचना नहीं करनी है। प्रार्थना शुद्ध स्वरूप याने ईश्वर की करना है। हमें यह अभ्यास होना चाहिए कि हम प्राणिमात्र में उसे देख सकें। इस अभ्यास के लिए पहले हमें अपने प्रात्मा के साथियों को मित्र बनाना होगा। ये हैं-कान, नाक, अखि, जिह्वा, शरीर व मन । यदि हम इन्हें मित्र न बनाएँ तो ये हमारे शत्रु बनकर हमारे मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। इन्हें वश में करने पर मार्ग काफी सरल बन जाता है। प्रात्मा की ओर अन्तर्मुख होने में सहायता मिलती है। सच्चा मित्र वह है जो सुख में व दुःख में आगे आये। जैसे ढाल होती है, समरभूमि में वह आगे रहकर शरीर का रक्षण करती है व सिंहासन पर बैठने पर वह पीछे पीठ पर लगी रहती है। इसी प्रकार इन छह को हम मित्र बनाएं तो हमारी उद्विग्न एवं कष्टकर स्थिति में आगे होकर हमारा साथ देंगे । वर्ना ये यदि शत्रु बने तो पहले ही हमारे मार्ग में बाधक बन जायेंगे । हमें इन पर विजय पानी है, इन्हें अपने नियन्त्रण में लेना है। यदि क्रोध पाता है तो उसे कम करने का साधन है क्षमा करना । क्षमा भावना मन में रहे तो क्रोध नहीं आ पायेगा। इसी प्रकार अभिमान को दूर करने का अस्त्र है विनय । विनयशील व्यक्ति में कभी अभिमान नहीं होता और जब तक मनुष्य के मन में विनय न हो उसके मन में किसी संत, सज्जन या बड़ों के प्रति आदर उत्पन्न नहीं होगा। अतः अभिमान को दूर करने के लिए हमें विनयशील होना होगा। यदि हमारे मन में कपट, दंभ है, हम माया से घिरे हैं तो आत्मा को पहचान नहीं सकते, उसे देख नहीं सकते हैं। जिस प्रकार स्वच्छ प्राकाश में ही सूर्य चमकता है, यदि प्रकाश बादलों से घिरा हया है तो सूर्य को उपस्थिति होने के बावजूद हम उसके प्रकाश को देख नहीं सकते, उसी प्रकार जब तक मन स्वच्छ न हो हम आत्मा को देख नहीं सकते। अत: मन निर्मल हो, सत्यमार्गी हो यह आवश्यक है। इसके लिए हमें अपने आप को स्वार्थ से दूर रखना होगा, ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाना होगा, गुणपूजा का महत्त्व समझना होगा। यदि किसी की आत्मा की भावना को न समझकर उसका तिरस्कार करके प्राराध्य की पूजा करेंगे तो किसी काम की नहीं होगी। प्रभु से इतना ही मांगना है कि वह प्रात्मिक बल इतना दे कि हम उस आनन्द में अमर हो जाएँ। हम ईश्वर का एक बार नाम न लें तो चल सकता है परन्तु उसके आदेशों का पालन करें तो उसको पूजने के बराबर ही है। परन्तु यदि उसका नाम रटते रहें और उसके बताये मार्ग के विरुद्ध चलें तो उसका नाम लेना न लेना बराबर ही है। क्या कोई पिता उसके पुत्र द्वारा अपनी प्राज्ञा की अवहेलना करके उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होगा? जिस प्रकार वह पिता अपने ऐसे पुत्र से, जो उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता व प्रशंसा करता है, प्रसन्न नहीं होगा तो ईश्वर कैसे प्रसन्न होगा? हमारे लिए तो यही मार्ग है कि हम उसके बताये रास्ते पर उसके कहे अनुसार चलें और उसका स्मरण भी करते रहें, तब हम उस अंतिम उद्देश्य तक पहुंचने में सफल होंगे। प्रिय पाठको ! जिस प्रकार बुनाई करके खेत तैयार रखें तो वर्षा के होने पर बीज को अंकुरित होने में समय नहीं लगता, उसी प्रकार प. पू. म. सा. द्वारा प्रदत्त ये विचारसंकलन आपके जीवन की भूमि को तैयार रखने में यदि मदद करें और प. पू. म. सा. के पाप आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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