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________________ जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के प्रेरक तत्त्व | ३३३ का एक छेद नहीं रह सकता। वह पूर्ण निश्च्छिद्र होकर ही समत्व के जल को धारण कर सकता है।' भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे प्रोषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, उसी प्रकार अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है । अहिंसा चर-अचर सभी का कल्याण करने वाली है "एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं पिव गगणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं मिव असणं, समुद्दमझे वा पोतवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्ञ व सत्थगमणं, एतो विसिट्टतरिका अहिंसा जा सा पुढवि-जलअगणि-मारुय-वणस्सह-बीज.हरित-जलचर-यलचर-खहचर-तस-थावर-सव्वभेयखेमकरो।"' 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त होकर साधक सब प्राणियों को प्रात्मवत समझे और किसी की हिंसा न करे । २ 'याचारांग' के अनुस आत्मीयता की भावना का प्राधार ही अहिंसा और मैत्री है। किसी उद्वेग, परिताप या दुःख ने, नहीं पहुँचाना चाहिए । अहिंसा शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है जिसका प्रतिपादन तीर्थंकरों अर्हतों ने किया। अहिंसा को नैतिकता के साथ-साथ रखना चाहिए, यह दोनों पृथक् पृथक् नहीं हैं । व्यवहार में अहिंसा नैतिक आचरण की सीमा का संस्पर्श करती है। 'पाचारांगसूत्र' में बहुत ही गहन और व्यापक जीवन-दर्शन अहिंसा, मैत्री के माध्यम से रेखांकित किया गया है, यह आत्मीयता का साकार रूप है "जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे परिताप देना चाहता है वह तू ही है।" यहीं से हम समाज में समानता और एकता का वातावरण बना सकते हैं। अहिंसा, मैत्री से बढ़कर समाज में समानता, एकता, सद्भाव, शांति और किसके द्वारा प्राप्त हो सकती है। उपनिषदों में सब भूतों को अपनी आत्मा में देखना या समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखने का सर्वात्मदर्शन व्यंजित है, वह अहिंसा का ही प्रतिपादन है, यहां किसी से घृणा का प्रश्न नहीं उठता यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुप्सुते ॥ यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मवाभूद् विजानतः।। तत्र को मोहः कः शोकः एकात्वमनुपश्यतः॥ महाभारत में अहिंसा, मैत्री, अभय का विस्तार से बार-बार प्रतिपादन किया गया है। भला जो सर्व भूतों को अभय देने वाला है वह दूसरों को कैसे मार सकता है। अभयदान या प्राणदान से बढ़कर संसार में और कोई दान नहीं हो सकता-"प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति । न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् । अहिंसा परम धर्म है, परम १. प्रश्नव्याकरण, ६१२१ २. उत्तराध्ययन, ६१६ ३. प्राचारांगसूत्र, ११४१२ ४. प्राचारांगसूत्र, १११५ ५. महाभारत, अनु. पर्व, ११६-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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