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________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड / १९४ - "अध्यात्मसार" ग्रन्थ लिखा। उन्होंने "योगावतार बत्तीसी" में जैनयोग की प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। जैनमत में "योगसार" ग्रन्थ प्रसिद्ध है । आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र ग्रन्थ बहुत रोचक है। इसमें कोरा योग वर्णन नहीं है अपितु अनुभव की गूढ़ता भी है, गहराई भी जिसकी चेतना में विच्छिलता है, वह कोई । उपलब्धि नहीं कर सकता । सांसारिक उपलब्धि के लिए चेतना की एकाग्रता आवश्यक है अतः लौकिक और प्रात्मगत ( Subjective) अनुभव दोनों के लिए अपनी चेतना को जानना जरूरी है। प्रात्मबोध के विना इधर-उधर भटकने से कुछ मिलता नहीं है तांस्तानापरमेश्वरादपि परान् भावं प्रसादं नयन्, पायमूढ, भगवन्नात्मन् किमायस्यसि । हन्तात्मानमपि प्रसादय मनाग् येनासतां सम्पदः साम्राज्यं परमेऽपि तेजसि तव प्राज्यं समुज्जं भते ! ( द्वावश प्रकाश, योगशास्त्र ) यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिस चेतना से सब कुछ उपलब्ध होता है, मनुष्य उसको प्रसन्न नहीं करता, उसका विकास नहीं करता, उसको अनुशासित नहीं करता, उस पर प्रयोग नहीं करता ! वैराग्य, जैनयोग में योग का आधार है। यह वैराग्य कैसे हो, इसका मनोविज्ञान बताते हुए हेमचन्द्राचार्य मन को समझाते हैं। आधुनिक मस्तिष्क विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के कतिपय केन्द्रों की गति ही 'मन' है, इन केन्द्रों को निष्क्रिय बनाना उन्मनावस्था है, जिसको कबीर ने 'उन्मन' या उन्मुनि' कहा है। मस्तिष्क के कतिपय केन्द्रों से उन्मुख रह कर मात्र 'होने' या अस्तित्व या प्राणसत्ता में तल्लीन होकर सर्वत्र एक लयानुभूति करना ही साधना है, मस्तिष्कगति या श्रात्मगति शंकुभूत (Pointed) न हो, किसी बलवम्न विशेष में संलग्न न हो, मात्र अपने में रमे, यह दशा ही आनन्द देती है क्योंकि वह अपने में सिमिट कर तटस्थ होकर, चीजों और व्यक्तियों के मूल में जो मूलसत्ता या प्रकृति है, जो अव्यक्त है, सूक्ष्म है, जिसमें मूलतः सारी दृष्टि विद्यमान है, उसका बोध जगाकर, उस बोधन अनुभूति में उस मूलज्ञान में उस मूलतत्व के अहसास में, तल्लीन होना ही निर्द्वन्द्वता है । संसार में सतह पर तो द्वन्द्व हैं उनसे परे जाकर अपने भीतर सिमिट कर ही निर्द्वन्द्व समाधि प्राप्त हो सकती है । आचार्य हेमचन्द्र ने बाह्यविषयों के सम्पर्क में आते ही मस्तिष्क के कुछ केन्द्रों की अतिसक्रियता को मन कहा है । कृष्ण ने 'गीता' में मन वायु समान बताया है और हेमचन्द्र ने पवनसम । मन के प्रति उदासीन भाव से वह निष्क्रिय हो जाता है, यही उन्मनावस्था है अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये । शिथिलीभवति शरीरं छत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा । ( द्वादश प्रकाश ) अमनस्कता से मन स्तब्ध हो जाता है और स्वचेतनावलोकन या आत्मपरामर्श का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इस उन्मनावस्था का वर्णन हेमचन्द्राचार्य ने इस तरह किया है- विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डीनमिव प्रलीनमिव कायम् अमनस्कोदय-समये योगी जानात्य सत्कल्पम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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