________________
द्वितीय खण्ड/ २२
चीख उठी । परन्तु आप विचलित नहीं हुए और न ही डरे । उन्होंने निर्द्वन्द्व भाव से सर्प को हाथ से खींचा और पानी में फेंक दिया। वज्राघात
आपने अपनी दूसरी पुत्री उमा का विवाह भी साढ़े ग्यारह वर्ष की आयु में ही . कर दिया। विवाह के पश्चात् अभी गौना भी नहीं हुआ था कि अचानक समाचार मिला कि आपके छोटे दामाद का देहावसान हो गया । अपनी लाडली पुत्री के वैधव्य के समाचारों से आपके मन पर बहत आघात लगा । अापने-अपने जीवन में अनेक वियोग सहे, परन्तु इस वियोग का वज्राघात सबसे भारी था । आप भरे घर को खुला छोड़कर आये थे, पुनः वापिस नहीं गये, अतः अपनी पुत्री के पास ही रहने लगे। साधना के पथ पर
अपने दामाद की मृत्यु के दस या ग्यारह दिन बाद परम श्रद्धय महासती श्री सरदार कुंवर जी. म. सा. का अजमेर पधारना हुआ। और उमा की अंतरवेदना से उनका हृदय भर आया। उन्होंने मांगलिक सुनाया, सांत्वना दी और विहार कर दिया । एक वर्ष बाद पुनः अजमेर (दोराई) पधारे तब आपकी आग्रह भरी विनती स्वीकार कर महासती जी उमा को दर्शन देने दादिया गांव पधारी । यहीं से उमा के मन में महासती जी के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय हुआ। ___इसके पश्चात् आप अपनी पुत्री को साथ लेकर महासतीजी के दर्शनार्थ नोखा गाँव पहुँचे । यहीं पर उमा ने दीक्षा लेने के अपने भाव आपके सामने रखे । यहाँ से आप अपनी पुत्री को लेकर कुचेरा पहुँचे, उस समय कुचेरा में स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा. विराजमान थे। पाप स्वामीजी की से
सीजी की सेवा में पहुँचे और दर्शन किये । तब आपके मन में भी दीक्षा लेने के भाव जाग्रत हो उठे।
वि. सम्वत् १९९४ मृगसिर कृष्णा एकादशी को प्रातः ८ बजे परम श्रद्धय स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के करकमलों से उमा और मांगीलालजी की दीक्षा सम्पन्न हुई। आप मनि श्री मांगीलालजी महाराज के रूप में स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. के शिष्य बने । और उमा श्री उमरावकुंवरजी महाराज के रूप में महासती श्री सरदार कुंवरजी महाराज की शिष्या बनी। साधना का प्रारम्भ
दीक्षा के समय आपकी आयु ५३ वर्ष की थी और अध्ययन बहुत गहरा नहीं था। परन्तु गृहस्थजीवन में ही ध्यान एवं प्रात्मचिंतन की ओर आपका मन लगा रहता था। उसी भावना को विकसित करने के लिये आप प्रायः मौन रखते थे और ध्यान, जप एवं प्रात्मचितन में संलग्न रहते थे। इसके साथ-२ उन्होंने तपसाधना भी प्रारम्भ कर दी। वे सारे दिन में एक बार ही प्राहार करते थे और वह भी एक पात्र में।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी आपको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । अनेक परिषह सहने पड़े। अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल समस्याएँ आपके
Jain Educa
international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org