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________________ चतुर्थ खण्ड | २६४ २. निराशावादी मन-गुलाब के बगीचे में विहार के लिए जाये तो कांटों के बीच खिले गुलाब के फूल को देखकर विचारने लगे--एक गुलाब और सौ कांटे, एक प्रात्मा पाठ कर्म । कर्म अनादिकालिक, इनको जीतना महा मुश्किल, पंचमकाल हीन संहनन, कर्म विजेता बनने में जब तीर्थंकर, चक्रवर्ती बलभद्र कठिनाई का अनुभव करते हैं तब सामान्य मनुष्य . की क्या हस्ती जो कर्मरूपी पहाड़ों के लिये बज्र बने । निराशावादी कोल्ह के बैल की तरह अतीव अनुत्साही होकर जीवन बिताता है। निराशावादी कर्मों के आगे नाचता है और प्राशावादी कर्मों को नाच नचाता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने अमर यशस्वी 'योगशास्त्र' में मन के ४ भेद किये१. विक्षिप्त, २. यातायात, ३. श्लिष्ट, ४. सुलीन ।* मन का यह वर्गीकरण भी मनोवैज्ञानिकों के लिए वाञ्छनीय है और इसके बिना वे चमत्कारी मानव नहीं बन सकेंगे। चूंकि मन सभी मनुष्यों के समीप है, अतएव यह सत्य तथ्य सभी के लिए, सम्पूर्ण सृष्टि के लिए, ज्ञातव्य और ध्यातव्य है । १.विक्षिप्त मन-इधर-उधर भटकता रहता है। यह एक प्रकार का बनजारा आवारा है। जो घड़ी में बाहर आता है, घड़ी में भीतर जाता है। विक्षिप्त मन पागल या मिथ्यादृष्टि जैसा है जो अपनी माँ को मां कहने के साथ बहन, बहू, बेटी, स्त्री भी कह बैठता है । विक्षिप्त मन वह अबोध बालक है, जो शीघ्र रूठता और संतुष्ट होता है। विक्षिप्त मन उस खादी के समान है, जो जल्दी साफ होती है और जल्दी गन्दी होती है। २. यातायात मन-विक्षिप्त नहीं सावधान है। अपने कार्य हेतु सजग सतर्क है। माल गोदाम में जैसे माल का आयात-निर्यात होता है, वैसे ही यातायात मन में भावनाओं का ज्वारभाटा आता-जाता है । यातायात मन में विभ्रम नहीं विलास है। लाभ की ओर दृष्टि है, हानि से बचाव का प्रयत्न है। यातायात मन वाला कभी शरीर की सत्ता भलाकर भी प्रात्मा में क्षणिक काल के लिए सुस्थिर होने का प्रयास करता है। ३. श्लिष्ट मन-विक्षिप्त में बेचैनी है, यातायात में अस्थिरता। श्लिष्ट मन स्थिरता सहित होता है, इन्द्रियरूपी अश्वों को रोकने की उसमें अपूर्व क्षमता होती है। श्लिष्ट मन समाधि में समाविष्ट होने का स्वप्न देखता है, प्रयास करता है, जितने काल तक स्थिर रहता है, आनन्द का अनुभव करता है। श्लिष्ट मन उस विद्यार्थी के तुल्य है जो प्रथम श्रेणी के अंकों के लिए अध्ययन, अनुभव, अभ्यास अतीव आवश्यक मानकर तदनुकल प्रवृत्ति करता है। यह अग्रसर पुरोगामी होता है । वाहन का इंजन जैसा है। ४. सुलीन मन-सुलीन शब्द ही बतलाता है कि उसका धारक अपने में अनन्य भाव लिए है, अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए सम्पूर्णतया समर्पित है। सुलीन मन मति वाला अपने कार्य-हेतु अनवरत-अविश्रान्त रूप में जागरूक रहता है और 'जागरूक की जय निश्चित है' मानता है। सुलीन मन दिव्य प्रानन्द पाता है और प्रामाणिकता की उपाधि धारण करता है। सुलीन मन सब कुछ कर सकता है। • इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च । चेतश्चतुःप्रकारं तत् सचमत्कारकारि भवेत् ॥ -अ. १२ श्लोक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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