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________________ मन : एक चिन्तन : विश्लेषण | २६३ अमोघ औषधि है। नियन्त्रित मन से लोकजीवन ही नहीं बल्कि पारलौकिकजीवन भी मंगलमय होता है। नियन्त्रित मन अनुकल मित्र है। यह सही दिशा में समुचित गन्तव्य स्थल तक पहुँचाता है । यह संवर-निर्जरा का कारण है। अनियन्त्रित मन किसी भी प्रकार के बन्धन को स्वीकार नहीं करता है। पूर्णतया अराजकतावादी होता है। अनियन्त्रित मन में अपारगति होती है पर अपार परिणाम सोचने की शक्ति नहीं होती है। अनियन्त्रित मन उस मर्कट के समान है, जो एक तो स्वभावतः चञ्चल, दूसरे कोई उसे सुरा पिलादे, तीसरे स्त्री-विच्छ से कटादे तो यह उछल कूदकर नर से वानर, राम से रावण बनता है और शत्रु हो कर, प्रास्रव-बन्ध करके सर्वश्रेष्ठ योनि मानव को निकृष्टतम योनि निगोद में ले जाता है । अनियन्त्रित मन उस वाहन (सायकल, मोटर, स्कूटर, रेलगाड़ी, हवाई जहाज) सदृश है, जिसमें गति है पर नियामक रोकथामकारी ब्रेक नहीं है । अनियन्त्रित मन, अनपढ़, अज्ञानी, अशिक्षित, अकुलीन, अमानुषिक पर ही प्रभाव जमा पाता है, अपनी बाढ़ में बहा पाता है, कभी भूले-भटके ज्ञानी शिक्षित कुलीन को भी बहा ले जाने का नाटक करता है। उनके सद्गुणों की परीक्षा लेने का नाटक करता है। अनियन्त्रित मन अधोमुखी है । वह मनुष्य को नरक और तियंञ्च गति में ले जाता है । एक वाक्य में अनियन्त्रित मन अतीवत्रास मूलक है। अनियन्त्रित मन बरसाती बाढ़वाली मलिन सरिता है और नियन्त्रित मन शीतग्रीष्मकालीन स्वच्छसलिला विमला सरिता है। जहाँ अनियन्त्रित मन अपने अस्तित्व के हेतु संघर्ष करने को कटिबद्ध रहता है, वहीं नियन्त्रित मन अपने सम्मान को सुरक्षित रखने के साथ अन्य के भी मान-महत्त्व को स्वीकार करता है। विचार के धरातल पर अनियन्त्रित मन से नियन्त्रित मन श्रेष्ठतम है। भावना के उत्थान-पतन की दष्टि से मन के दो भेद हैं:- १. प्राशावादी मन, २. निराशावादी मन । १. आशावादी मन-आशावाद जीवन है । आशावादी मन की आस्था है-'हारिये न हिम्मत विसारिए न हरि-नाम ।' आशावादी मन लेकर मनुष्य गुलाब के उद्यान में विहार की नीयत से जाये तो गुलाब के हंसते कोमलतम प्रसून को देखकर विचारने लगे--जब गुलाब का फूल एकेन्द्रिय इतने काँटों के बीच मुस्करा सकता है, तब मैं पाँच इन्द्रियों वाला मनुष्य चार-छह दु:ख के कांटों से घबरा कर चेहरा लटकाऊं, आत्महत्या की विचारू तो मुझे धिक्कार है । मेरी शिक्षा, संस्कृति, धर्म, प्रतिभा व्यर्थ है। गुलाब के प्रसून-सी हंसती जिन्दगी व्यतीत करना ही मेरा कर्तव्य है। माना कि कर्म अनादिकालिक हैं और मैं तीर्थंकर-चक्रवर्तीबलभद्र सा समर्थ नहीं हूँ किन्तु कर्मभूमि का सामान्य मनुष्य तो हूँ, एकदम पुरुषार्थ-विहीन तो नहीं हैं। इसलिए चेतन स्वभावी प्रात्मा होकर मैं जड़कर्मों से कभी भी हार नहीं मानूंगा। अशुभ आश्रव से बचकर शुभ आश्रव तो कर ही सकता हूँ, अपकार के स्थान में उपकार कर सकता है और अपवर्ग नहीं तो स्वर्ग तो प्राप्त कर सकता है। मैं संकल्पप्रधान आशावादी हो जीवन पर्यन्त रहूंगा। धम्मो दीवो संसार समुद्र में | धर्म ही दीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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