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________________ भाव-शुद्धि-विहीन शुभ कर्म खोखले महात्मा ने गंभीर होकर उत्तर दिया: यह हँसने की बात नहीं हैं, समझने की बात है कि: "विष्णुः परिस्थितो विष्णु विष्णुः खादति विष्णवे । कथं हससि रे विष्णो ! सर्वं विष्णुमयं जगत् ॥ " अर्थात् विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु विष्णु को खिलाता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत् ही तो विष्णुमय है । दूसरे शब्दों में, समस्त संसार उस परमपितापरमात्मा विष्णु से व्याप्त है । उस फ़क्कड़ संत की गूढ़-ज्ञान से परिपूर्ण बात को सुनकर एकत्र व्यक्ति बड़े लज्जित हुए तथा प्रत्येक प्राणी में परमात्मा को देखने वाले उन पहुंचे हुए सच्चे साधु के समक्ष नतमस्तक हो गए । इस ज्वलंत उदाहरण से स्पष्ट जाता है कि मूलत: प्रत्येक जीवात्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बड़ी, इसीलिये ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं वे जीव में नहीं । इसे सरलतापूर्वक गंगा नदी के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । यथा— गंगा के चौड़े पाट और बड़ी धारा में नाव और जहाज चलते हैं, असंख्य मछलियाँ और मगरमच्छ भी तैरते रहते हैं । साथ ही किनारे पर लोग स्नान करके स्वयं को धन्य मानते | किन्तु वही गंगा-जल एक लोटे में भर लिया जाय तो न लोग उसमें गोता लगा सकेंगे, न नावें चलेंगी और न ही कच्छ-मच्छ उसमें तैरते हुए मिलेंगे । पर क्या गंगा के जल में और उस लोटे के जल में कोई अन्तर है ? नहीं, दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं है । इसी प्रकार छोटे से छोटे जीवात्मा और परमात्मा के मूलतः एक समान होने में भी सन्देह नहीं है । स्पष्ट है कि जो महामानव इस रहस्य को समझ लेगा वह अन्य जीवात्माओं से कभी दुराव या वैर नहीं करेगा । जगत् के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझने वाला किससे वैर करेगा और किससे प्रीति ? वह समदर्शी हो जाएगा और समदर्शी होने पर संसार के दुःखक्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त कर लेगा । मोक्ष किसी पदार्थ का नाम नहीं है जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या उपाश्रयों में जाने से प्राप्त हो जाएगा। अपितु मानव के हृदय में अज्ञान की जो ग्रंथि है उसके खुलकर सर्वथा नष्ट हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं । दूसरे शब्दों में हृदय में कामनाओं का तथा राग-द्वेष का निवास 'संसार' कहलाता है तथा इन सबका नष्ट हो जाना मुक्ति । आज हम देखते हैं कि सम्प्रदाय, धर्म और मजहब आदि के नाम पर लोग लड़ते हैं, झगड़ते हैं, दंगे-फसाद तथा कल्लेश्राम करते हैं और तब भी स्वयं को धर्म के ठेकेदार तथा भगवान् के भक्त मानते हैं । इसी भावना के कारण किसी ने ठीक ही कहा है: समाहिकामे समणे तवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है। •E Jain Education International 19 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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