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________________ जैन-योग का एक महान ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १४३ के झुरमुट में, नगर के उपवन की वेदी के अन्त में, वेदी के मण्डप पर, चैत्यवृक्ष के नीचे, वर्षा, गर्मी, पाला, प्रचंड वायु प्रादि से वजित स्थान में योगी जन्म-मरण के दुःख को मिटाने का लक्ष्य लिए अनवरत जागरित रहता है-ध्यानस्थ होता है।" उनतीसवें सर्ग में प्राणायाम का वर्णन है। तीसवें में प्रत्याहार एवं धारणा का वर्णन है। इकत्तीसवें सर्ग में सवीर्य-ध्यान, ध्येयरूप परमात्मा तथा समरस भाव का वर्णन है। बत्तीसवें सर्ग में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, भेदज्ञान, परमात्मप्राप्ति आदि का वर्णन हैं। तेतीसवें सर्ग में धर्मध्यान के आज्ञा-विचय भेद का, चौतीसवें सर्ग मे अपाय-विचय भेद का, पैतीसर्वे सर्ग में विपाक-विचय भेद का, छत्तीसर्वे सर्ग में पिंडस्थ ध्यान का, पांच धारणाओं का, अड़तीसवें सर्ग में पदस्थ ध्यान का, उनतालीसवें सर्ग में रूपस्थ ध्यान का, चालीसवें सर्ग में रूपातीत ध्यान का विवेचन है । इकतालीसवें सर्ग में धर्म-ध्यान के फल आदि का वर्णन है। बयालीसवें सर्ग में शुक्लध्यान का स्वरूप, उसके भेद, मोक्ष तथा सिद्धात्मा की गरिमा का वर्णन है। ज्ञानार्णव में णित प्रासन, प्राणायाम तथा ध्यान का विशद विवेचन तत्तत् सम्बद्ध प्रकरणों में यथास्थान किया गया है। १. सागरान्ते बनान्ते वा शैलशुगान्तरेऽथवा । पुलिने पद्मखण्डान्ते प्राकारे शालसंकटे ॥ सरितां संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे । जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भ विजन्तुके ।। सिद्धकटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा। मद्धिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवांछिते ।। मन: प्रीतिप्रदेशस्ते शंकाकोलाहलच्युते । सर्वर्तुसुखदे रम्ये सर्वोपद्रवजिते ।। शून्यवेश्मन्यथ ग्रामे भूगर्भे कदलीगहे । पुरोपवन वेद्यन्ते मण्डपे चैत्यपादपे ।। वर्षातपतुषारादिपवनासारवजिते । स्थाने जागत्यं विश्रान्तं यमी जन्मात्तिगान्तये ।। -ज्ञानार्णव २८.२-७ 00 आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibran.com
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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