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________________ आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना । कमला जैन 'जीजी', एम. ए. 'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ।' प्राणियों को मानव-जन्म प्राप्त करना अति दुर्लभ है और यही जन्म चौरासी लक्ष योनियों में सर्वश्रेष्ठ है, यह बात सभी धर्म-ग्रन्थों में प्रकारान्तर से कही गई है। कारण यही है कि मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने ज्ञान एवं विवेक के द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में गतिमान होकर अपनी चरम लक्ष्य-सिद्धि कर सकता है। चतुर्विध पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और यही मनुष्य का परम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के हमारे शास्त्रों में अनेक साधन बताए गए हैं, जिनमें भक्ति एवं उपासना का उल्लेख करते हुए इन्हें आध्यात्मिक जीवन का अनिवार्य अंग माना गया है। सामान्यतया लोग अपने-अपने इष्टदेव की भक्ति और पूजा करके उपासना की सहज और सरल विधि अपनाते हैं, किन्तु संसार-मुक्ति ही जिन साधकों का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म और गहनतर उपासना में निमग्न होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर लेते हैं। उनका एकान्त विश्वास होता है लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं, तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् । यस्त्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः, स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् ॥ सर्वश्रेष्ठ मनुष्यजन्म, विद्या, योग्यता आदि प्राप्त करके भी जो व्यक्ति प्रात्ममुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह असद्ग्रह से प्रात्महत्या करता है। अतः मनुष्य को मुक्ति के लिये अवश्यमेव प्रयत्न करना चाहिये। स्पष्ट है कि प्रात्म-मुक्ति के लिये साधक को उपासना करने में पुरुषार्थ करना अनिवार्य है, क्योंकि उपासना ही उसे मोक्ष-प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है। आवश्यकता है उत्कृष्ट संकल्प की । प्रत्येक मनुष्य संकल्पमय होता है, किन्तु उसे ध्यान रखना चाहिये कि अपकृष्ट संकल्प से वह अपकर्ष को प्राप्त होगा तथा उत्कृष्ट संकल्प से उत्कर्ष को प्राप्त हो सकेगा। उपासना का स्वरूप जिस क्रिया के द्वारा मानव स्वयं को अपने इष्ट के साथ प्रस्थापित कर सके, उसी का नाम 'उपासना' है। 'उप-समीपे पासना-स्थितिः उपासना। उपासक भावप्रवण मन से उपासना करे अथवा उपासना से मन में भाव प्रवणता हो, दोनों ही बातें सम्भव हैं। उत्तम गुरु या अधिकारी सिद्ध साधकों के हृदय में पूर्व से ही भावप्रवणता होती है। अतः उनकी धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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