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________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १७३ क्र. चक्र स्थान चक्रों का विवरण चक्र-पुष्प की लोक तत्त्व पंखुडियाँ (दल) देवता अक्षर शक्ति बीज मंत्र १. मूलाधार लिंग भूः पृथ्वी ब्रह्मा डाकिनी लं व से स २. स्वाधिष्ठान पेड़ भुवः जल स्वः अग्नि विष्णु चाकिनी वं ब रुद्र लाकिनी रं ड ३. मणिपूर नाभि ४. अनाहत हृदय महः वायु ईश्वर काकिनी यं क सेठ ५. विशुद्ध कण्ठ जनः आकाश महेश्वर शाकिनी हं प्र से प्रः (सदाशिव) ६. आज्ञा भ्रू मध्य २ तपः महत् परशिव हाकिनी . ह, क्ष ७. सहस्रार मस्तिष्क १,००० सत्यम् शुन्य परब्रह्म महाशक्ति (:) विसर्ग [चक्रों के चित्रों का अवलोकन की जिये] चित्र क्र. २ (अ) एवं (ब) व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण उपर्युक्त सारिणी के अवलोकन से यह स्पष्ट होगा कि इन चक्रों का सम्बन्ध विभिन्न लोकों से है। मुलाधार चक्र भोक, स्वाधिष्ठान भवर्लोक, मणिपूर स्वर्लोक, अनाहत महर्लोक, विशुद्ध जनःलोक, प्राज्ञा तपःलोक तथा सहस्रार सत्यलोक से सम्बन्धित हैं । प्रश्न यह उठता है कि क्या ये चक्र व्यष्टि में समष्टि-स्थित विभिन्न लोकों का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते हैं ? प्रश्न का उत्तर निश्चित ही सकारात्मक है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा व्यष्टि में समष्टि को, तथा समष्टि में व्यष्टि को देखती रही है। इस कारण इन चक्रों के माध्यम से कुंडलिनी की यह अन्तर्यात्रा अनुभूति के व्यापक स्तर पर विभिन्न लोकों की, सूक्ष्म चेतना के अदृष्ट आधार पर यात्रा होती है । केवल इन लोकों तक ही क्यों ? पुराणों ने सात अधःलोकों यथा अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल की परिकल्पना की है। उनके ऊपर भूर्लोक अथवा पृथिवी-मंडल है जो सूक्ष्मरूप में मूलाधार में स्थित है। हठयोग सम्बन्धी कुछ चित्र एवं तत्सम्बन्धी विवरण इन दिनों उपलब्ध हैं । इनमें अधोलोक में इन विभिन्न स्तरों तथा उनकी शरीर में स्थिति तथा उनके दिव्य-प्रतीकों का अंकन हुअा है। चित्र क्र.-३ में इन्हें प्रदर्शित किया गया है। इन्हें विश्लेषित करने पर मत्स्य, कर्म, अनन्त, वराह आदि अवतारों की कल्पना का गढ़ तत्त्व भी समझ में आ जावेगा। यह भी स्पष्ट हो जावेगा कि कुंडलिनी और कोई नहीं, पुराण-वणित शेषनाग है, जिस पर वराहरूपी वे विष्णु विराजमान हैं जिन्होंने पृथ्वी अर्थात् लक्ष्मी को धारण कर रखा है। यहाँ जो मूलाधार है उसकी नाभि में ब्रह्मा, जो उसका देवता है, ब्रह्मनाड़ी की कमल-नाल पर बैठा है। पुराणों ने कुंडलिनी की इस व्यष्टि-गत अंतर्यात्रा से जुड़े तत्त्वों को समष्टिगत रूपक से पाश्चर्यजनक रूप से बांधा है। आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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