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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २१७
५. ये कवि जन्मना राजस्थानी होकर भी अपने साधनाकाल में विभिन्न क्षेत्रों में पद-विहार करते रहे हैं। इस कारण इनकी भाषा में स्वाभाविक रूप से अन्य प्रान्तों के देशज शब्दों का समावेश हो गया है। भाषा के क्षेत्र में इन कवियों का दृष्टिकोण बड़ा उदार और लचीला रहा है। इन्होंने सदैव तत्सम प्रयोगों के स्थान पर तद्भव प्रयोगों को विशेष महत्त्व दिया है। भाषा की रूढिबद्धता से ये सदैव दूर रहे हैं। यही कारण है कि इनके काव्यों में भले ही रीतिकालीन कवियों सा चमत्कार प्रदर्शन और कलात्मक सौन्दर्य न मिले, पर भाषाविज्ञान की दृष्टि से इनके अध्ययन का विशेष महत्त्व है। अलंकारों के प्रयोग में ये बड़े सजग रहे हैं। उपमानों के चयन में इनकी दृष्टि शास्त्रीयता की अपेक्षा लोकजीवन पर अधिक टिकी है। लम्बे लम्बे सांगरूपक बांधने में ये विशेष दक्ष प्रतीत होते हैं ।
६. छन्द के क्षेत्र में इनका विशेष योगदान है। जहाँ एक पोर इन्होंने प्रचलित मात्रिक और वर्णिक छन्दों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न छन्दों को मिलाकर कई नये छन्दों की सर्जना की है। ये कवि अपने काव्य का सर्जन मुख्यतः जनमानस को प्रतिबोधित करने के उद्देश्य से किया करते थे, अतः समय-समय पर प्रचलित लोक धुनों और लोकप्रिय तों को अपनाना ये कभी नहीं भूले । जहाँ वैराग्य-प्रधान कवित्त और सवैये लिखकर इन्होंने मां भारती का भण्डार भरा, वहाँ ख्यालों में प्रचलित तोड़े भी इनकी पहुँच से नहीं बचे । गजल और फिल्मी धुन के प्रयोग भी प्राध्यात्म के क्षेत्र में ये बड़ी कुशलता से कर सके हैं।
७. साहित्य निर्माण के साथ-साथ प्रति-लेखन और साहित्य-संरक्षण में भी इन कवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । कई मुनियों और साध्वियों ने अपने जीवन में सैकड़ों मूल्यवान् और दुर्लभ ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर, उन्हें कालकवलित होने से बचाया है । साहित्य के संरक्षण और प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी साम्प्रदायिक दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया । जो भी इन्हें ज्ञानवर्द्धक, जनहितकारी और साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान् लगा, फिर चाहे वह जैन हो या जैनेतर, उसका संग्रह-संरक्षण अवश्य किया। राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक देन की दृष्टि से इनका यह योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
-२३५ ए, तिलकनगर, जयपुर (राज.)
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है
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