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________________ चतुर्थ खण्ड / २१६ शृंगार की यह प्रतिक्रिया आवेगमयी बनकर नायक को शान्तरस के समुद्र की गहराई में बहुत दूर तक पेठा देती है। निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन के आधार पर जैनकवियों की काव्य-साधना की मुख्य विशेषताओं को . संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है: १. ये कवि प्रमुख रूप से साधक और शास्त्रज्ञ रहे हैं। कवित्व इनके लिये गौण रहा है। प्रतिदिन जनमानस को प्रतिबोधित करना उनके कार्यक्रम का मुख्य अंग होने से अपने उपदेश को बोधगम्य और जनसुलभ बनाने की दृष्टि से ये समय समय पर स्तवन, भजन, कथाकाव्य आदि की रचना करते रहे हैं। २. इन कवियों के काव्य का मूल प्रेरणास्रोत पागम साहित्य और इससे सम्बद्ध कथासाहित्य रहा है । सुविधा की दृष्टि से इनके काव्य के चार वर्ग किये जा सकते हैं-चरितकाव्य, उत्सवकाव्य, नीतिकाव्य और स्तुतिकाव्य । चरितकाव्य में सामान्यतः तीर्थंकरों, गणधरों, महान् प्राचार्यों, निष्ठावान् श्रावकों सतियों प्रादि की कथा कही गई है। रामायण और महाभारत को अपने ढंग से ढालों में निबद्ध कर उनके आदर्शों का व्यापक प्रचार प्रसार करने में ये बड़े सफल रहे हैं। ये काव्य रास, चौपाई, ढाल, सज्झाय, संधि, प्रबन्ध, चौढालिया, पंचढालिया, षटढालिया, सप्तढालिया, चरित कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सवकाव्य विभिन्न आध्यात्मिक पर्यों और ऋतु विशेष के बदलते हए वातावरण को माध्यम बनाकर लिखे गये हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को सांगरूपक के माध्यम से लोकोतर रूप में ढाला है । नीति काव्य जीवनोपयोगी उपदेशों तथा तात्त्विक सिद्धान्तों से सम्बन्धित है। इनमें सदाचारपालन, कषाय-त्याग, सप्तव्यसन-त्याग, ब्रह्मचर्य, व्रत-प्रत्याख्यान, बारह भावना, ज्ञानदर्शन, चारित्र, तप, दया, दान, संयम आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। स्तुतिकाव्य चौवीस तीर्थंकरों, बीस विहरमानों और महान आचार्यों तथा मुनियों से सम्बन्धित है। ३. इन विभिन्न काव्यों का महत्त्व दो दृष्टियों से विशेष है । साहित्यिक दृष्टि से इन कवियों ने महाकाव्य और खण्डकाव्यों के बीच काव्यरूपों के कई नये स्तर कायम किये और उनमें लोकसंगीत का विशेष सौन्दर्य भरा। वर्ण्य विषय की दृष्टि से अधिकांश चरित काव्यों में कथा की कोई नवीनता या मौलिकता नहीं है । पिष्टपेषण मात्र सा लगता है । एक ही चरित्र को विभिन्न रूपों में बार-बार गाया गया है पर इन कथाओं के माध्यम से क्षेत्रीय लोकजीवन और लोकसंस्कृति का जो चित्र अंकित किया गया है, वह सांस्कृतिक दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। प्रागमिक कथामों के अतिरिक्त अपनी परम्परा से सम्बद्ध जिन महान् प्राचार्यों, मुनियों और साध्वियों पर जो सज्झाय, स्तवन और ढालें लिखी गई हैं, उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है। ४. ये कवि मूल रूप से धार्मिक क्रांति और सामाजिक जागरण से जुड़े हुए हैं। इस कारण इन कवियों में धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर, बाह्याचार, रूढ़िवादिता और जड़ता के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोह की भावना रही है। इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना, प्रांतरिक पवित्रता और साध्वाचार की कठोर मर्यादा पर बल दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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