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चतुर्थखण्ड / ३१० हो जाता है। बाचना, पृच्छना, परावर्तना, धनुप्रेक्षा, और धर्मकथन से श्रुतधर्म का प्रयास करता है। कष, छेद और ताप से उसका परीक्षण करता है और स्वानुभूति प्राप्त करता है। बारह भावनाओं का चितन करने से उसकी स्वानुभूति में और भी गहराई मा जाती है। धर्मचिंतन के माध्यम से गृहस्य धर्म की ओर अच्छी तरह प्राकर्षित हो जाता है।
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गृहस्थ धर्म के आध्यात्मिक विकास के तृतीय चरण में श्राचार्य हरिभद्र ने विशेष देशना - विधि प्रस्तुत की है। उनका मत है कि इस स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते गृहस्थ संवेग प्राप्त कर लेता है और सम्यग्दृष्टि बन जाता है। सम्यग्दृष्टि होने पर ही वह अणुव्रत ग्रहण करने का अधिकारी है अन्यथा नहीं। सम्यग्दृष्टि ही प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा धौर धास्तिक्य जैसे गुणों से जीवन को उज्ज्वल कर लेता है ।
इसके बाद आचार्य ने बारह प्रणुव्रतों का वर्णन किया है। पंचाणुव्रतों में तो कोई भेद नहीं है पर गुणवतों धौर शिक्षाव्रतों में कुछ अंतर मिलता है। हरिभद्र ने दिपरिमाण भोगोपभोगपरिमाण धीर अनर्थदंड विरमण ये तीन गुणव्रत माने हैं। कुंद-कुंद की परम्परा में भी इन तीनों को गुणव्रत कहा है। उमास्वाति ने अवश्य भोगोपभोग के स्थान पर देशव्रत को स्वीकार किया है। भगवती प्राराधना, वसुनन्दिश्रावकाचार महापुराण धादि में उमास्वाति का ही अणुकरण किया गया है ।
इसी अध्याय में प्राचार्य ने सामायिक, देशावकासिक, प्रोषध, और प्रतिथिसंविभाग इन चार शिक्षाव्रतों को स्वीकार किया है। इसके पूर्व कुंद कुंद ने देशावकासिक न मानकर संलेखना को स्थान दिया है। भगवती धराधना में संलेखना के स्थान पर भोगोपभोग परिमाण व्रत रखा गया और सर्वार्थसिद्धि में उसे स्वतंत्र व्रत का रूप दिया गया । उमास्वाति ने देशाकाशिक की जगह उपभोग- परिभोग परिमाण और समन्तभद्र ने प्रोषधोपवास की जगह वैयावृत्य का समर्थन किया । इन परम्पराओं में दैशिक और कालिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि रही होनी चाहिए।
सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर उसकी रक्षा का उपाय भी सुझाया गया। साधर्मियों की संगति, वत्सलता, नमस्कारमंत्रपाठ चैत्यवंदन, प्रत्याख्यान, चैत्यगमन, पूजा-पाठ, साधुवंदन, उपदेश ग्रहण, चिन्तन, दान, दया, धर्म व्यवहार आदि ऐसे उपाय हैं जिनके आधार से सम्यक्त्व में प्रबलता और दृढता आती है । ललितविस्तरा में भी इनका वर्णन श्राता है । विशेष रूप से वहाँ चैत्यवंदन को अधिक महत्त्व दिया गया है।
इस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र ने धर्मविन्दु और ललित विस्तरा इन दोनों ग्रन्थों में गृहस्थाचार का काल की दृष्टि से वर्णन किया है। कहीं-कहीं लीक से हटकर उन्होंने अपना मत व्यक्त किया है । समय और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने गृहस्थाचार की देशना विधि का जो क्रम दिया है वह निश्चित ही प्रभावक और उद्धारक है । साधक के प्राध्यात्मिक विकास की इतनी सरल और सुलझी हुई रूपरेखा अन्यत्र दिखाई नहीं देती ।
न्यू एक्स्टेन्शन एरिया सदर, नागपुर
१. सति सम्यग्दर्शने न्याय्यमणुव्रतादीनाम् ग्रहणं नान्यथेति धर्म बिन्दु २, ५.
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