SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 783
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड / २३८ किन्तु वासना, रूप से अभी चित्त में शेष हैं, ऐसे क्लेशों को तनुक्लेश कहते हैं । ये क्लेश प्रभूत और प्रभूततर सहकारी कारण उपस्थित होने पर ही पुनः अपना परिणाम दिखाने में समर्थ हो पाते हैं । क्लेशों की यह स्थिति अभ्यासयुक्त योगियों में प्राप्त होती है, यह कहा जा सकता है। जिन क्लेशों की शक्ति किसी अन्य बलवान् क्लेश से अभिभूत रहती है, उन्हें विच्छिन्नक्लेश कहते हैं। तथा सहकारी कारणों को प्राप्त कर उद्भूत अवस्था में विद्यमान क्लेश उदार कहे जाते हैं।' प्रसुप्त तनु विच्छिन्न और उदार इन चारों ही प्रकार के क्लेशों से उत्पन्न वृत्ति को कर्म कहते हैं । दूसरे शब्दों में अविद्या अस्मिता रागद्वेष और अभिनिवेश ये प्रसुप्त आदि किसी भी अवस्था में रहते हुए चित्त और इन्द्रियों में व्यापार उत्पन्न करते हैं, इस व्यापार को कर्म कहते हैं। इन कर्मों के द्वारा संस्कार उत्पन्न होते हैं, जिन्हें प्राशय अथवा कर्माशय कहते हैं। अविद्या प्रादि से उत्पन्न कर्मों के संस्कारों, जिन्हें कर्माशय नाम से ही सामान्यतः अभिहित किया जाता है, का फल इस जन्म और जन्मान्तर दोनों में प्राप्त हो सकता है।' ये फल तीन प्रकार के हो सकते हैं, जन्म (जाति) आयु और भोग ।' किस कर्माशय का फल इस जन्म में होगा और किसका जन्मान्तर में इस सम्बन्ध में सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि अतिविशिष्ट पुण्य तथा प्रति उग्र अपुण्य से निर्मित कर्माशय इसी जन्म में और कभी-कभी सद्यःफलदायी हया करते हैं। जैसे-तीव्र संवेगपूर्वक की गयी मन्त्रसाधना तप:साधना समाधिसाधना अथवा महर्षि या देवता की आराधना द्वारा अजित पुण्य कर्माशय सद्यःफलदायी हो जाता है। इस प्रसंग में नन्दीश्वर का उदाहरण दिया जा सकता है जिसने बाल्यावस्था में ही तीव्र मन्त्र तप: समाधि की साधना के फलस्वरूप दीर्घ आयुष्य एवं मानवशरीर से ही दिव्य भोगों को प्राप्त कर लिया था। महर्षि विश्वामित्र ने भी तपश्चर्या के द्वारा इसी जन्म में ब्राह्मण जाति एवं दीर्घ आयुष्य को प्राप्त किया था। तीव्र अपुण्यकर्माशय भी शीघ्र फल देते हैं। उदाहरणार्थ भयाकुल रोगी अथवा दीनजनों के साथ किया गया विश्वासघात अथवा पुण्यात्मा महर्षि गुरुजन आदि के साथ किया गया बारम्बार अपकार सद्यःफलदायी होता है। नहुष द्वारा महर्षियों के अपमान से सर्प जाति की प्राप्ति का पौराणिक आख्यान इसका उदाहरण है। योगसूत्र के व्याख्याकार नागोजिभट्ट के अनुसार कर्माशय का मुख्य फल तो भोग ही हुआ करता है, जाति और आयुष्य तो उसके नान्तरीयक फल हैं, जिनकी प्राप्ति भोगों के लिए पृष्ठभूमि के रूप में हुआ करती है। विच्छिन्ना ये सामग्रीमन्तरेण स्वकार्यमा सम्पादनशक्तयो वासनावशेषतय 3. क्लेशमूलः यः स्वं स्वं कार्यमा क्लेशेनाभिभूतशतमाः यथा अभ्या १. ते तनवो ये स्वप्रतिपक्षभावनया शिथिलीकृतकार्यसम्पादनशक्तयो वासनावशेषतया चेतस्यव स्थिताः प्रभूतां सामग्रीमन्तरेण स्वकार्यमारब्धुमक्षमाः, यथा अभ्यासवतो योगिनः । ते विच्छिन्ना ये केनचिद् बलवता क्लेशेनाभिभूतशक्तयस्तिष्ठन्ति । --ते उदारा: ये प्राप्त सहकारिसन्निधयः स्वं स्वं कार्यमभिनिर्वतयन्ति ।-भोजवृत्ति २.४, पृ० ६३. २. क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । -यो० सू० २.१२ ३. सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः॥-यो० सू० २.१३ ।। ४. विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य-पातञ्जलयोगशास्त्र एक अध्ययन, पृ. ९०. ५. अत्र भोगो मुख्यं फलम्, तन्नान्तरीयके च जात्यायुषी। नागोजिवृत्ति, २. १३. पृ. ७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy