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________________ कर्माशय एवं उनका भोग | २३७ करते हैं । इस प्रकार बीजभाव को प्राप्त चित्तवृत्तियों (क्रियाओं) को प्रसुप्तकर्म कहते हैं।' साधना के माध्यम से विवेकख्याति का उदय होने के अनन्तर ये चित्तवृत्तिरूप क्लेशबीज दग्ध हो जाते हैं, उनकी अंकुरण शक्ति समाप्त हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पालम्बन के सम्मुख आने पर भी उनका उदय (अंकुरण) नहीं होता, जैसे कि आग से भुने हुए बीजों को बोने पर अन्य समग्र परिस्थितियों के अंकुरण योग्य होने पर भी दग्ध होने के कारण बीजों का अंकुरण नहीं होता । यह अवस्था कर्मों की पांचवीं अर्थात् अन्तिम अवस्था है, इस अवस्था को कर्मों की प्रसुप्ति अवस्था भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान, प्रात्मा और इन्द्रियों में भेद की प्रतीति, वैराग्य, मैत्रीभावना एवं अजरामरत्व बुद्धि का उदय होने पर उनके द्वारा उपहत होने से अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्रमशः क्षीण हो जाते हैं, उस स्थिति में इन क्लेशमूलक कर्मों की तनु अवस्था स्वीकार की जाती है। क्योंकि ये भावनाएँ अविद्या आदि की प्रतिपक्षी भावना है, और उन्हें दुर्बल बना देती है।४ जब कभी एक क्लिष्ट चित्तवत्ति (क्रिया) किसी अन्य वत्ति (क्रिया) से किञ्चित्काल के लिए दब जाती है, इसे स्थितिविच्छेद या विच्छिन्नता की अवस्था कहते हैं । ५ विषय की प्राप्ति के समय क्लेश के विकास अथवा अनुभूति की अवस्था को उदार कहते हैं। रामानन्द यति के अनुसार विदेह प्रकृतिलय योगियों के क्लेश प्रसुप्त, क्रिया योगियों के तनु तथा विषयासक्त जनों के क्लेशविच्छिन्न तथा उदार कहे जा सकते हैं। इसके विपरीत राजमार्तण्डवृत्तिकार भोज मानव की विशेष स्थायी उपलब्धि के आधार पर क्लेशों को उदाहृत करने के स्थान पर चित्तभूमि की स्थिति के आधार पर उदाहृत करते हैं । उनके अनुसार चित्तभूमि में स्थित, किन्तु प्रबोधक के अभाव में अपना कार्य प्रारम्भ न करने वाले कर्म प्रसुप्त कहे जाने चाहिए, उदाहरणार्थ बालक के चित्त में विद्यमान काम (रति) आदि क्लेश प्रबोधक सहकारी कारणों के अभाव में अभिव्यक्त नहीं होते। प्रतिपक्ष भावना से जिनकी कार्यसम्पादनशक्ति क्षीण हो गयी है, तत्र का प्रसुप्ति: ? चेतसि शक्तिमात्रप्रतिष्ठानां बीजभावोपगमः, तस्य प्रबोधः पालम्बने सम्मुखीभावः ॥ —योगभाष्य २. ४. पृ. १४४. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः । -यो. सू. २. २६. प्रसंख्यानवतः दग्धक्लेशबीजस्य सम्मुखीभूतेऽप्यालम्बने नासौ पुनरस्ति, दग्धबीजस्य कुतः प्ररोहः। विषयस्य " सम्मुखीभावेऽपि सति न भवति एषां प्रबोध इत्युक्ता प्रसुप्तिः। -योगभाष्य २.४. ४. क. वितकं बाधने प्रतिपक्षभावनम् । -यो. सू. २. ३३ ख. प्रतिपक्षभावनोपहता: क्लेशास्तनवो भवन्ति । -यो. भा. २.४. ५. विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मा पुनः समुदाचरन्ति इति विच्छिन्ना। कथम् ? रागकाले क्रोधस्यादर्शनात् । न हि रागकाले क्रोधः समुदाचरति, स हि तदा प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो भवति । -यो० भा० २.४. ६. विषये यो लब्धवृत्तिः स उदारः ।-यो० भा० १.४, पृ० १४६ - ७. तत्र विदेहप्रकृतिलयानां योगिनां प्रसुप्ता: क्लेशा:, क्रियायोगिनां तनवः, विषयसङिगनां विच्छिन्ना: उदाराश्च भवन्ति । -मणिप्रशा० २.४, पृ० ६४. ये क्लेशाश्चित्तभूमौ स्थिताः प्रबोधकाभावे स्वकार्य नारभन्ते ते सुप्ता इत्युच्यन्ते । यथा बाल्यावस्थायाम्, बालस्य हि वासनारूपेण स्थिता अपि क्लेशा प्रबोधसहकार्यभावे नाभिव्यज्यन्ते ।-भोजवृत्ति २.४, पृ० ६३ धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है NA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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