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ज्योतिर्धर आचार्य: संक्षिप्त जीवन-रेखा
भारतीय इतिहास की सोलहवीं शताब्दी धार्मिक जागरण और वैचारिक उद्बोधन की दृष्टि से अत्यन्त क्रांतिकारी शताब्दी रही है । साधना एवं आराधना के क्षेत्र में इस शताब्दी में अनेक क्रांतिकारी विचारों का प्रवर्तन हुआ है। भक्ति, उपासना की दृष्टि से इस शताब्दी में निर्गुण उपासना का स्वर मुखरित हुआ। गुरु नानक, संत कबीर, संत रविदास, तारण स्वामी इसी शताब्दी की उपलब्धियाँ हैं और धर्मवीर लोकाशाह की धर्म-क्रांति भी इसी शताब्दी का ऐतिहासिक उद्घोष है। ___जैनपरम्परा के श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय ने एक क्रांतिकारी धर्मपरम्परा के रूप में जो विकास किया, साधना, आराधना एवं धर्माचरण की विधियों में जो सुधार तथा परिवर्तन किये वे इसी क्रांतिकारी शताब्दी की देन हैं और यह देन है धर्मवीर लोंकाशाह की।
लोकाशाह एक तटस्थ चिंतक और समत्वभावना-निष्ठ विचारक थे। वे अपने युग के क्रांतिकारी धर्म-सुधारक, सत्य के निर्भीक खोजी और स्पष्टवक्ता थे। जैनधर्म में चैतन्य पूजक विचारों का अवरुद्ध प्रवाह लोंकाशाह के दृढ प्रयत्नों से पुन: प्रवाहित हुआ था। इसलिए स्थानकवासी जैनपरम्परा के विचार-पुरुष के रूप में लोकाशाह का नाम इतिहास का अविस्मरणीय अध्याय है और है हमारी वर्णमाला का प्रथम स्वर ।
लोकाशाह की विचार-जागति एवं धर्मक्रांति को प्राणवान् बनाने वाले स्थानकवासी परम्परा के प्रादिपुरुषों में थे-श्री धर्मदासजी महाराज साहब । श्री धर्मदासजी म. सा. अपने युग के समर्थ विद्वान एवं तेजस्वी धर्मप्रचारक संत थे। वि. सं. १७७२ के उनका स्वर्गवास हो गया।
प्राचार्य श्री धर्मदासजी म. सा. की शिष्यपरम्परा अति विशाल थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में ही अपने शिष्यों का विभाजन कर दिया था, जो बाईसटोला के नाम से विख्यात है। आपके तीसरे पट्ट पर प्राचार्यश्री भूधरजी म. हुए । आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। वे बड़े निर्भीक, तेजस्वी एवं कठोर साधक थे। गृहस्थ जीवन में वे जोधपुर नरेश श्री अजीतसिंहजी के फौजी अधिकारी थे। वे सोजत के कोतवाल भी रहे। इनका साहस और समझदारी उल्लेखनीय मानी जाती थी। जब वे संसार से विरक्त हो आचार्यश्री धनराजजी म. के पास दीक्षित हुए तो अनेक लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक वीर फौजी
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