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पंचविध ध्यान पद्धति : स्वरूप, विश्लेषण / ५
५. आनन्दमुद्रा
पिछली चार मुद्राग्रों की फल निष्पत्ति इस पांचवीं मुद्रा में है । प्रार्थना बीज, योगमुद्रा अंकुर, दीपकमुद्रा पादप, वीतरागमुद्रा फलोद्गम तथा श्रानन्दमुद्रा फल की रसानुभूति से उपमित की जा सकती है ।
साधनारत ग्रात्मा का परमात्मभाव
के साक्षात्कार की दिशा में अभिवर्धनशीलक्रम के अन्तर्गत ज्यों-ज्यों वहिर्भाव से पार्थक्य होता जाता है, उसकी दृष्टि स्वोन्मुख बनती जाती है, राग, द्वेष के बन्धन तड़ातड़ टूटने लगते हैं । यह सब ज्यों ही सध जाता है, अपरिसीम आनन्द की अनुभूति होती है, जो सर्वथा परनिरपेक्ष और नितान्त स्व-सापेक्ष होता है । यह वह आनन्द है, जिसके लिए जगत् में कोई उपमान नहीं है। इस
अखण्ड अनवच्छिन्न असीम ग्रानन्द को
अनुभूति के कुछ ही क्षण अन्तरतम में ऐसी उत्कण्ठा जगा जाते हैं, जो जीवन को एक नया मोड़ देती है, जो इस मुद्रा द्वारा गम्य है ।
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इस मुद्रा में ग्रासन काय स्थिति यदि साधक के सहज धानुकूल्य एवं सौविध्य के अनुरूप अभीप्सित है।
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन
तब हो सके आश्वस्त जम
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