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________________ पंचम खण्ड / ४ अर्चनार्चन ४. वीतरागमुद्रा वीतराग वह दशा है, जहाँ साधक राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह प्रादि से विरत होने की अनुभूति करता है । यद्यपि तात्त्विकदृष्ट्या तदनुरूप कर्म-क्ष यात्मक स्थिति जब तक निष्पन्न नहीं होती, तब तक वह (वीतगगता) सर्वथा प्राप्त नहीं हो सकती, किन्तु तदनुरूप कर्मक्षयोन्मुख पुरुषार्थ-पुरस्कार हेतु साधक वीतरागत्व के ध्यानात्मक अभ्यास में अभिरत होता है, जो उसके लिए परम हितावह है।। इस मुद्रा में साधक प्रशान्तभाव से सुखासन में स्थित हो। बायें हाथ (हथेली) पर दायें हाथ (हथेली) को रखे । निम्नांकित श्लोक के आदर्श को दृष्टि में रखेरागद्वषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः । शक्रपूज्यं गिरामीशं, तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥ ___ राग-द्वेषविजय, देहातीत एवं साक्षिभाव की अनुभूति इस मुद्रा का उद्दिष्ट है। जगत् के प्रति, देह के प्रति सर्वथा अनासक्त, असंपृक्त भावमूलक चिन्तन, मनन एवं निदिध्यासन आगे बढ़े, अपने शुद्ध स्वरूप की ज्ञप्ति, प्रतीति, अनुभूति सधे, इस दिशा में साधक की स्थिरतामय दशा इस मुद्रा में निष्पन्न होती है। यह अनुभूतिप्रवण दशा है, जिसे शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता । इससे साधक निःसन्देह अपने जीवन में दिव्य शान्ति एवं समाधि-दशा का अनुभव करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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