________________
पंचम खण्ड / १९०
में होता है जो स्वातंत्र्य युक्त और दुःखमय स्थिति है। ऐसे मानव की वृत्तियाँ 'त्रुटिपूर्ण होती हैं और उसकी वर्कक्षमता अत्यन्त सीमित होती है क्योंकि बुद्धि शुद्ध नहीं होती । यद्यपि अध्ययन, मनन, व तर्क के द्वारा हम अपनी बुद्धि को प्रशस्त कर सकते हैं और स्मृति को भी तीव्र कर सकते हैं लेकिन जब तक क्लेश रहेंगे हमारी उपलब्धियाँ सीमित ही रहेंगी और बुद्धि विषयनिष्ठ व सत्यपरक नहीं हो पाएगी। हमारी बुद्धि निरन्तर सक्रिय रहती है। अर्चनार्चन और यह वितर्क, विचार, घानन्द और पस्मिता भावों को प्राप्त होती रहती है । क्लिष्ट व अशुद्ध बुद्धि में ये भाव क्षीण व अस्पष्ट रहते हैं लेकिन जब क्लेशों का शनैः शनै हान होने लगता है तो बुद्धि प्रज्ञा रूप होती जाती है और इसके भाव भी स्पष्ट और तीव्र होते हैं। अतः क्लेशों, तृष्णा, व कर्ममल को नष्ट करना ही योग का मूल प्रयोजन है जिससे बुद्धि प्रज्ञा हो सके और ज्ञाता अपने स्वरूप को उपलब्ध कर सके। प्रत एक ऐसे कार्यक्रम पर विचार करने की आवश्यकता है जिसके निरन्तर अभ्यास करने से क्लेशरूपी मल धीरे-धीरे नष्ट हो जाएँ औौर बुद्धि प्रज्ञारूप होकर अपने भावों में स्पष्ट गति कर सके । प्रज्ञा जब अपनी चरमशुद्धि की अवस्था को प्राप्त होती है तब स्वस्वरूप की स्थायी उपलब्धि होती है जिसे समाधि या कैवल्य या बोध या शिवत्व कहा जाता है । यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है जिसमें बुद्धि व मन पूर्णतः शान्तभाव को प्राप्त हो सकते हैं निश्चल व पारदर्शी जल की तरह ।
Jain Education International
३. मानस व बुद्धि की शुद्धि की इस उच्च अवस्था को प्राप्त करने के क्या उपाय हैं ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु भिन्न मतानुयायियों ने अनेक शोध व अन्वेषण किए हैं जिनमें संभवतया सर्वाधिक योगदान शैवों का रहा है । यहाँ इस पर पूर्ण मतैक्य है कि उपायों का वैराग्ययुक्त अभ्यास अनिवार्य है क्योंकि लम्बे व अनवरत अभ्यास की निरन्तर प्रक्रिया के बिना किसी भी फल की सिद्धि असंभव है। इन उपायों में तप अर्थात् उपवास धरती पर सोना, वस्तुओं का कम से कम उपयोग आदि ब्रह्मचर्य अर्थात् वीर्य की रक्षा और इस धातु का अधिकाधिक देह में ही रमाना, स्वाध्याय अर्थात् स्वस्वरूप के कारणों व प्रयोजनों तथा सृष्टि में आत्मा के स्थान आदि विषयों का अध्ययन, चिन्तन व मनन, मन्त्राभ्यास अर्थात् किसी वर्णसंयोजन का मन हो मन में निरन्तर उच्चारण, प्राणायाम, अर्थात् श्वास प्रक्रिया के निरोध के अभ्यास से प्राण वायु का देह में सर्वस्थानों में संचार, आसन अर्थात् देह के व्यायाम जिनमें विभिन्न क्रियामों पर मुद्राओं के अभ्यास से देह को स्वस्थ व शुद्धि प्रक्रिया के अनुकूल बनाना और ध्यान का अभ्यास, आदि कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके बारे में भी लगभग सभी मतों में ऐक्य है। लेकिन औषध प्रयोग जैसे पारद, भंग, चरस, मदिरा, व मांस का प्रयोग; काम शक्ति का संचालन और तदुपरान्त मनोनियन्त्रण, ईश्वर प्रणिधान अर्थात् प्रथमज्ञानदाता के प्रति समर्पणभाव, श्रादि उपायों के बारे में मतैक्य नहीं है । यद्यपि पतञ्जालि अपने योगसूत्र में श्रीषधप्रयोग द्वारा सिद्धि प्राप्ति का संकेत देते हैं लेकिन इसका सर्वाधिक प्रयोग शैव पद्धति में किया गया है जिसे हठयोग या तंत्र पद्धति कहा जाता है । इसी प्रकार पतञ्जलि ईश्वरप्रणिधान को साधक के प्रारंभिक अभियान में एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं।
पतन्जलिमात्मस्वरूप उपलब्धि की पद्धति के दो चरण मानते हैं, प्रथम चित्तवृत्तिनिरोध और दूसरी क्लेशहान जो संस्कारनिरोध भी कही जा सकती है । चित्तवृत्तिनिरोध के भी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org