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________________ परम उपकारमयी, गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी / ३१ अपार स्नेह मिला लेकिन जननी का वात्सल्य न मिल सका । कहा जाता है कि माँ के कदमों के नीचे जन्नत (स्वर्ग) होती है, लेकिन नियति को प्रापको यह सुख देना स्वीकार न था। प्रश्न उठता है कि जीवन क्या है ? इस रहस्य को विविध दार्शनिकों ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है । वैदिक परम्परा में जिसे ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिपुटी कहा गया है, बौद्धपरम्परा में प्रज्ञा, शील और समाधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है, जैनदर्शन में उसीको श्रद्धा, ज्ञान और आचरण कहा गया है । वस्तुतः जीवन ज्ञान, श्रद्धा और आचरण का समन्वित रूप है। इन तीनों तत्त्वों के बिना जीवन उस कागज के फल की भाँति है, जिसमें सुगन्ध नहीं है, उस देवालय की भाँति है जिसमें ईश्वर की प्रतिमा नहीं। जीवन को परिभाषित करने का प्रयास कुछ मनीषियों ने भी किया है। महात्मा गांधी ने कहा था"जीवन का उद्देश्य प्रात्मदर्शन है और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एकमात्र उपाय परमार्थभाव से प्राणीमात्र की सेवा करना है।" नोबल पुरस्कार प्राप्तकर्ता विश्वविख्यात टॉलस्टाय ने जीवन के सम्बन्ध में कहा था-"मनुष्य का सच्चा जीवन तब प्रारम्भ होता है जब वह अनुभव करता है कि शारीरिक जीवन व्यर्थ है।" विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में-"जीवन सागर-तट पर पत्र पर पड़े हुए उन अोसबिंदुओं की भाँति है जो धीमे-धीमे नृत्य करते हों।" सुकरात के अनुसार जीवन का उद्देश्य ईश्वर की भाँति होना चाहिए । ईश्वर का अनुकरण करती आत्मा ईश्वरतुल्य हो जायगी। प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. ब्राउनी ने जीवन का सम्बन्ध युद्ध के साथ जोड़ते हुए कहा-"जब मनुष्य का युद्ध अपने आप के साथ होता है, तब उसका कुछ मूल्य होता है।" वस्तुत: मेरी पूज्य गुरुवर्या का जीवन सुषुप्त नहीं जागृत है । एक ऐसी धूप है, जो भारत के सुदूर प्रांतों तक फैली है । पचास वर्ष अनवरत साधना करते हुए आपने जिस दिव्य ज्योति से साक्षात्कार किया है, वह सहजता, सरलता एवं असीम प्रशान्ति प्रदान करने वाली है। आपका जीवन स्वामी विवेकानन्द के इस कथन के अनुरूप है-"जीवन का रहस्य भोग में नहीं त्याग में है।" पूज्य गुरुवर्या का ध्येय जीवन-मंथन से अमृत पाना है। उन्हें ऐसा जीवन अभीष्ट है जो मरणशील न हो, उन्मुक्त हो, आभ्यन्तर हो, लयात्मक हो, सचेत हो और ज्योतिष्मान जाज्वल्यमान हो, जिसमें जड़ता और अंधकार न हो। इस अद्भुत और अलौकिक जीवन को पाने के लिए आप सतत यत्नशील हैं । यह जीवन आँखों से देखा नहीं जा सकता, हाथ से छुपा नहीं जा सकता, उस तक साधना के अनवरत जलते हुए दीप के आलोक से पहुँचा जा सकता है। यह उजाला कहता है—'मैं अजर हूँ, अमर हूँ, तैजस हूँ और ज्योतिष्मान हूँ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only UINIjainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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