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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / २५२ महाराष्ट्री प्राकृत को ही मान्य लिया था जो उस समय की स्टैण्डर्ड साहित्यिक प्राकृत समझी जाती थी । क्रमश: पैशाची और मागधी का विवेचन करने वाले १० वाँ और ११ वा अध्याय संभवतः भामह प्रथवा किसी अज्ञात वैयाकरण द्वारा बाद में जोड़ा गया। ज्ञातव्य है कि शौरसेनी के लक्षण प्रतिपादित करने वाले १२ बॅ परिच्छेद पर स्वयं भामह की भी टीका नहीं है । ' प्राकृत बोलियों संबंधी मतभेद पूर्वीय और पश्चिमी संप्रदायों के वैयाकरणों में परस्पर कितने ही मतभेद हैं जिससे भिन्न-भिन्न क्षेत्र एवं भिन्न-भिन्न काल को लेकर परिवर्तनशील प्राकृत बोलियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है । सबसे पहला मतभेद तो धातु अथवा शब्द संबंधी गणों को लेकर ही है; दोनों ही संप्रदायों ने भिन्न-भिन्न गण स्वीकार किये हैं । पैशाची, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री बोलियों संबंधी मतभेद भी कम नहीं हैं । वररुचि ने प्राकृतप्रकाश में शौरसेनी को पैशाची का आधार माना है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व में ११ पिशाच देशों को गिनाया है। उन्होंने कैकय, शौरसेन और पांचाल नाम की तीन पैशाची बोलियों का उल्लेख किया है । राम शर्मा तर्कवागीश ने इनमें गौड़, मागध और व्राचड पैशाची को सम्मिलित कर दिया है। पश्चिमी संप्रदाय के वैयाकरणों में इस प्रकार का वर्गीकरण देखने में नहीं आता । पैशाची प्राकृत की कोई स्वतंत्र रचना भी उपलब्ध नहीं है; गुणाढ्य की बडकहा (वृहत्कथा ) नष्ट हो गई है । श्रर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और पैशाची की भाँति मागधी में स्वतंत्र रचनात्रों का अभाव है । संस्कृत नाटकों में ही इसके प्रयोग मिलते हैं । वररुचि और हेमचन्द्र ने मागधी के कतिपय नियमों का विवेचन कर शेष नियमों को शौरसेनी पर से समझ लेने का प्रादेश दिया है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी को मागधी की प्रकृति बताया है । अर्धमागधी प्राकृत के संबंध में ऊपर कहा जा चुका है। यह श्वेताम्बर जैन आगम ग्रंथों की भाषा है जैसे संस्कृत को गीर्वाण (देव) भाषा कहा जाता है वैसे ही अर्धमागधी को प्रार्षवचन प्रथवा देववाणी कहा गया है। घाषभाषा होने के कारण इसकी स्वतंत्र उत्पत्ति मानी गई है जिसके लिये व्याकरण के नियमों की आवश्यकता नहीं पड़ती । क्रमदीश्वर ने अर्धमागधी को महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण कहा है। मार्कण्डेय ने मागधी के लक्षणों का विवेचन करने के पश्चात् शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्धमागधी बताया है । श्वेताम्बर जैन ग्रंथों की अर्धमागधी के लोकभाषा होने के कारण उसमें क्षेत्र एवं काल के धनुसार समय-समय पर परिवर्तन होते रहे जिससे उसमें मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री के प्रयोग भी शामिल कर लिये गये । ज्ञातव्य है कि जैसे बौद्ध श्रागम ग्रंथों की मागधी नाट्यशास्त्र एवं प्राकृत व्याकरणों में निर्दिष्ट मागधी से भिन्न है, उसी प्रकार श्वेताम्बर जैन ग्रंथों की अर्धमागधी नाट्यशास्त्र एवं प्राकृत व्याकरणों में निर्दिष्ट अर्धमागधी से भिन्न मानी गई है। शौरसेनी दिगंबरीय ग्रागम ग्रंथों की भाषा रही है। ध्वनितस्व को दृष्टि से यह बोली मध्यभारतीय आर्यभाषा के विकास में संक्रमण काल की अवस्था मानी गई है, इसके बाद महाराष्ट्री प्राती है । भरत ने नाट्यशास्त्र में बोलियों का वर्गीकरण करते हुए शौरसेनी का १. देखिये दिनेशचन्द्र सरकार, ग्रामर श्रॉव दी प्राकृत लैन्ग्वेज, १९४३, पृ० ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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