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________________ अन्य योगसाधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना / १७९ प्रखण्ड, सरल, विशुद्ध या अमिश्र सत्ता नहीं है । प्रकृति के सभी स्तर उसमें अनुस्यूत हैं । सृष्टि की समस्त धाराएँ उसमें कहीं उद्दाम, कहीं मन्थर गति से प्रवाहित हो रही हैं। मुख्यतया तीन स्तर दृष्टिगोचर होते हैं । सत्ता का प्रथम स्तर शरीर और उसको संजीवित रखने वाली प्राण-शक्ति है। उससे ऊर्ध्वतर क्षेत्र में मन का स्थान आता है जिसमें बुद्धि, विचार, कल्पना, भावना और चिन्तन स्पन्दित होते रहते हैं । तृतीय ऊर्वतम स्तर आत्मा है जो आध्यात्मिक बोध, विज्ञानमय स्वरूप प्रानन्द का अजस्र निर्भर एवं अमृतत्व का अधिष्ठान-पाश्रय स्थान है। तांत्रिक शब्दावली में प्रथम देह-प्राणमय भाव 'पशुभाव', मन-बुद्धिमयभाव 'मनुष्यभाव' एवं तुरीयज्ञान-अध्यात्मभाव 'दिव्यभाव' कहलाता है। अन्तिम भाव ही सिद्धभाव या भागवतभाव है । विकास की गति में पशुभाव से मनुष्यभाव और मनुष्यभाव से दिव्य भाव में क्रमश: आरोहण होता है। मानव जीवभाव से ऊपर उठकर ऊर्ध्वतम भागवतभाव में पहुंचकर कृतकार्य हो जाता है । केवल प्रारोहण क्रम ही नहीं होता। अवरोह क्रम भी निरंतर जारी रहता है जिसमें परमात्मा आनंदोदधि की अमृत-वर्षा करते हुए चेतन और पुन: चेतन से अनेक सत्तामों के रूप में परिणत होता है और आरोहित जीव का आलिंगन करता है । इस प्रकार परमात्मा-प्राणी-प्रकृति का अवतरण और देह-मन और आत्मा का प्रारोहण अरविंद-दर्शन का प्राण है। उक्त त्रिविध सत्ता के विभिन्न अंगों को आधार बना भारत की पावन वसुन्धरा पर अनेक प्रकार की साधनाएँ प्रचलित हुई। इनमें हठयोग में 'घेरण्डसंहिता', 'शिवसंहिता' आदि को आधारभूत मानते हुए 'हठयोग प्रदीपिका' 'गोरक्षपद्धति' आदि ग्रन्थ लिखे गये तथा विभिन्न नाथ सम्प्रदाय के योगियों ने अपनी-अपनी कृतियों से इसे समृद्ध किया है। हठयोग 'ह' और '8' के योग से बना है। 'ह' का अर्थ है सूर्यनाड़ी और 'ठ' का चन्द्र नाड़ी। प्रथम से उष्णता और द्वितीय से शीतलता प्राप्त होती है। प्राणायाम के द्वारा सूर्य और चन्द्र नाड़ी को संतुलन द्वारा सुस्थिर आधार पर केन्द्रित किया जाता है। प्रासन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा आदि के अभ्यास के द्वारा देह को बलिष्ठ और स्वस्थ तथा प्राणशक्ति का अप्रतिहत गति से उत्तरोत्तर उत्थान करने का नाम हठयोग है। शरीर और प्राणशक्ति को वशीभूत कर परिशद्ध बनाना हठयोग का उद्देश्य है। इसकी प्रतिष्ठा अन्नमय और प्राणमय कोश की आधारशिला पर होती है। वंशानुक्रम और पर्यावरण द्वारा हमारा शरीर और प्राणशक्ति नियंत्रित होती है। दैनिक जीवन में जितनी प्राणशक्ति की ऊर्जा की खपत होती है, शरीर के जो-जो अंग कार्यरत होते हैं उतनी ही शक्ति बनती है। शरीर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जरा-व्याधि-मृत्यु का दास बना रहता है। हठयोग अपनी साधना के द्वारा देह में प्राणशक्ति के अक्षय स्रोत को उन्मुक्त प्रवाह में परिणत कर देता है जिससे देह की दासता के सभी क्षुद्र बन्धन परिसमाप्त हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। शरीर और प्राण पर विजय प्राप्त करना हठयोग का परम लक्ष्य है। अन्नमय और प्राणमय कोश से बने स्थूल शरीर को बलिष्ठ, सुन्दर और दीर्घजीवी बनाने के लिए यह दो उपाय-प्रासन और प्राणयाम प्रयुक्त करता है। शरीर को आसनों के माध्यम से स्थिर व अचंचल बनाया जाता है। सामान्यतया शरीर में कोई न कोई गति या कछ न कछ क्रिया सर्वदा चलती रहती है। वैश्वजीवन के महासागर से जो प्राणशक्ति शरीर में प्रविष्ट होती है उसे सारी की सारी अपने में समेटने में देह आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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